विद्या बेचारी हिंदी जैसी ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया
लिखते हुए मन में इक खालीपन लग रहा है बात हिंदी दिवस पर हिंदी के गौरव की करनी चाहिए मगर जो सामने है हिंदी का उपहास लगता है। बस हिंदी से उसका दर्द मिलता जुलता लगता है तभी किताबी हिंदी की बात छोड़ टीवी सीरियल की बात करने लगा हूं। दो चार कड़ियां दिखाई गई हैं विद्या नाम से धारावाहिक शुरू हुआ है। नायिका विधवा है ससुराल में चुपचाप सहमी हुई रहती है सब काम घर का करती है मेधावी है पंडित जी का बताया मंत्र इक बार याद हो जाता है। बचपन में पिता के पास एक के लिए किताब खरीदने को पैसे थे इसलिए बेटे को किताब लाकर स्कूल भेजते हैं और बेटी की ख़ुशी मां के साथ रसोई में हाथ बंटाने में है। विद्या बेटी जो है कोई शिकायत नहीं करती चुपचाप मान जाती है और जिस से परिवार गठबंधन करवाता है विवाह कर ससुराल चली जाती है। हिंदी भाषा की तरह बदनसीबी साथ रहती है और विधवा हो जाती है इक शहीद की विधवा को सरकार पचास लाख देती है मगर पैसे ससुराल वाले खा जाते हैं हिंदी दिवस के बजट की तरह सरकारी लोग क्या यही नहीं करते हैं। मगर रिश्वत की मेहरबानी से ससुराल वाले विद्या को सरकारी स्कूल में अध्यापिका नियुक्त करवा देते हैं बिना उसकी मर्ज़ी के ही और उसको आदेश देते हैं सुबह उठकर साइकिल पर दूर गांव जाकर अंग्रेजी पढ़ाने को क्योंकि सरकार ने टीवी वालों के विज्ञापन के शब्दों में जिसका अंग्रेजी का ए बी सी डी का डब्बा गोल है उसे बच्चों को अंग्रेजी पढ़ानी है। अब कौन कौन उसका शोषण करता है और कौन कौन उसको मूर्ख बनाता है कहानी लंबी है और बाकी है देखने को। मगर विद्या नाम से ही बेचारगी का एहसास होता है हिंदी की तरह। टीवी वाले उसका नाम भी हिंदी अंग्रेजी को मिला कर लिखते हैं जो उनकी मानसिकता है। अर्थात विद्या या हिंदी दया की पात्र हैं।
चलो टीवी सीरियल को छोड़ हिंदी की बात करते हैं। हिंदी लिखने वाले हर साल ख़ुशी मनाते हैं और गर्व करते हैं घोषणा करते हुए कि हिंदी जगत की भाषा बन गई है। मगर शिक्षा की बात होती है तो निजि विद्यालय अंग्रेजी स्कूल और सरकारी स्कूल हिंदी वाले का अंतर साफ लगता है। किसी को रूखी सूखी किसी को हलवा पूरी मिलने की बात है। मगर हिंदी लेखक हैं जो भूखे रहकर लिखते हैं और अपनी पूंजी खर्च कर किताबें छपवाते हैं और बिकती नहीं हैं तो उपहार में बांटने का काम करते हैं जबकि जिनको मुफ्त उपहार मिला पुस्तक को पढ़ना क्या देखते भी शायद हैं। किताब पढ़ने को फुर्सत किसे है जब दिन भर खाली समय मनोरंजन करना मकसद है और सोशल मीडिया पर उल्टी सीधी पढ़ाई पढ़ते हैं सबको ज्ञान देने की बात करते हैं। व्हाट्सएप्प फेसबुक स्मार्ट फोन की अनुकंपा है जो पढ़े लिखे और अंगूठा छाप एक समान हैं बल्कि अनपढ़ लगता है चार कदम आगे हैं। चलो शुभकानाओं का आदान प्रदान करते हैं हिंदी दिवस मनाते हैं और बाकी सब भूल जाते हैं।
हिंदी दिवस पर हिंदी का गुणगान करने की रचना पढ़ते हैं गीत गाते हैं कविता कहानी सुनाते हैं। अपनी किताब का विमोचन करवाते हैं बधाईयां पाते हैं इतराते हैं। कितने ईनाम पुरुस्कार मिले बतलाते हैं खुशियां मनाते हैं। क्या लिखा था साहित्य का मकसद क्या है भूल जाते हैं जाने किस दुनिया से आये हैं और किस दुनिया की तरफ चले जाते हैं। साहित्य कहते हैं सच का दर्पण है तो आईने को आईना दिखाते हैं। हम कहते हैं इक ऐसा समाज बनाते हैं जिस में छोटे बड़े का भेदभाव सब भूल जाते हैं मगर हम खुद को बड़ा किसी को छोटा भी समझते हैं समझाते हैं। राह कौन सी जाना है हम किस रास्ते बढ़ते जाते हैं। क्या समाज में बदलाव हुआ है साहित्य कर्म सार्थक है या कोशिश है अन्याय नहीं न्याय की बराबरी की बात हो ये चर्चा करते हुए घबराते हैं शर्माते हैं। अपना असली चेहरा ढकते हैं छुप जाते हैं। सरस्वती वंदना गाते हैं देवी को मनाते हैं मगर उसकी तस्वीर पर जमी धूल को इक ख़ास दिन साफ़ करते हैं सामने दीप जलाते हैं। अंधेरों से हम साल भर दोस्ती निभाते हैं किस का नाम लिया जाये कैसे कैसे लोगों के दरवाज़े पर सर झुकाते हैं झोली फैलाते हैं खैरात ले आते हैं अधिकार पाने की बात नहीं करते हैं डर जाते हैं। अपने हिंदी दिवस मनाने का निमंत्रण भिजवाया है क्या पता भूल गए गलत पते पर आकर घबराया है किसी नेता ने रद्दी की टोकरी में फिंकवाया है। देख कर किसी को दर्द आया है चुपके से रद्दी की टोकरी से उठाया है और सर माथे लगाया है क्योंकि ऊपर सरस्वती देवी की तस्वीर लगी थी सह नहीं पाया है। कैसे उस सभा में शामिल हो सकता है ये लेखक जिस में अंगूठा छाप को मुख्य अतिथि बनाया है। हिंदी के नाम पर इस साल भी दिल भर आया है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें