कोई मंज़िल नहीं इस राह की ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया
बात कुछ शायरी से करते हैं।
पहले मेरी तीन ग़ज़ल और इक ग़ज़ल फ़िल्म की बहुत पुरानी लता जी की गाई हुई मुझे पसंद है :-
1 पहली ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया "तनहा"
खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गई ,
हर सांस पर पहरे लगाना सब की चाहत बन गई।
इंसान की कीमत नहीं सिक्कों के इस बाज़ार में ,
सामान दुनिया का सभी की अब ज़रूरत बन गई।
बेनाम खत लिक्खे हुए कितने छुपा कर रख दिये ,
वो शख्स जाने कब मिले जिसकी अमानत बन गई।
मतलूब सब हाकिम बने तालिब नहीं कोई यहां ,
कैसे बताएं अब तुम्हें ऐसी सियासत बन गई।
( मतलूब=मनोनित। तालिब=निर्वाचित )
अनमोल रख कर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में ,
देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई।
सब दर्द बन जाते ग़ज़ल , खुशियां बनीं कविता नई ,
मैंने कहानी जब लिखी पैग़ामे-उल्फ़त बन गई।
लिखता रहा बेबाक सच " तनहा " ज़माना कह रहा ,
ऐसे किसी की ज़िंदगी कैसी इबादत बन गई।
2 दूसरी मेरी ये ग़ज़ल भी पढ़ कर देखते हैं :- डॉ लोक सेतिया "तनहा"
इन लबों पर हसी नहीं तो क्या
मिल सकी हर ख़ुशी नहीं तो क्या।
बात दुनिया समझ गई सारी
खुद जुबां से कही नहीं तो क्या।
हम खुदा इक तराश लेते हैं
मिल रहा आदमी नहीं तो क्या।
दोस्त कोई तलाश करते हैं
मिल रही दोस्ती नहीं तो क्या।
ज़ख्म कितने दिए मुझे सबने
आंख में बस नमी नहीं तो क्या।
और आये सभी जनाज़े पर
चल के आया वही नहीं तो क्या।
यूं ही मशहूर हो गए "तनहा"
दास्तानें कही नहीं तो क्या।
3 तीसरी मेरी ये ग़ज़ल और :- डॉ लोक सेतिया "तनहा"
धुआं धुआं बस धुआं धुंआ
न रौशनी का कहीं निशां।
हैं लोग अब पूछते यही
कहां रहें जाएं तो कहां।
बहार की आरज़ू हमें
खिज़ा की उसकी है दास्तां।
है जुर्म सच बोलना यहां
सिली हुई सच की है ज़ुबां।
जला रहे बस्तियां सभी
नहीं बचेगा कोई मकां।
न धर्म कोई न जात हो
हमें बनाना वही जहां।
उसी ने मसली कली कली
नहीं वो "तनहा" है बागबां।
अब बात हमारे समाज की वास्विकता की है :-
घर रहने को कैसा हो ये बात नहीं चर्चा इस बात की है कि घर कैसा हो जो अपनी शान को बढ़ाए। सामान अपनी सुविधा को देख कर नहीं शानो शौकत दिखाने को महंगा और बेमिसाल होना चाहिए। ये ऐसी भटकी हुई सोच है जो कोई राह ही नहीं मंज़िल तो खैर क्या होगी। जीने को सामान होना ठीक है सामान की खातिर जीना उचित नहीं और सामान को हासिल करने को जीना हराम करना तो पागलपन है। पागलपन की भी कोई सीमा होती है चांद को पाने को हाथ ऊपर करना अलग बात है थाली में पानी में चांद की छवि को पकड़ने की कोशिश बचपन की भोली बात होती है। लोगों को ये खेल भाने लगा है।
सरकार भी यही करती है जनता को बच्चा समझ कर थाली में पानी में चांद की छवि दिखाने की तरह भाषण विज्ञापन से देश को खुश करना चाहती है। बहुत कुछ बिना कहे समझा जा सकता है आखिर में इक पुरानी फिल्म की ग़ज़ल को सुनते हैं क्या खूबसूरत ग़ज़ल है :-
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