आरक्षण भी अस्थाई है ( विचारणीय ) डॉ लोक सेतिया
अभी अभी किसी ने मुझे ये संदेश भेजा है।
" आर्टिकल 370 टेम्परेरी था इसलिए खत्म किया जाना जायज़ था ,
आरक्षण भी तो अस्थाई है , इसे कब खत्म करेंगे "।
मुझे बात उचित लगी क्योंकि जैसे देश का जनमत धारा 370 को हटाने का समर्थक है क्योंकि लोग समझते हैं इस से उनको कश्मीर में कुछ अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है और इसको हटाने को कश्मीर के लोगों से सहमति लेना संभव ही नहीं था लेकिन जब सरकार ने जैसे भी ढंग से रास्ता बनाकर ये कर दिया है तो उनको स्वीकार करना ही होगा। क्या यही बात आरक्षण को लेकर नहीं कही जा सकती है जिनको आरक्षण मिलता है उनको भी इसी तरह बेबस मज़बूर कर धारा 144 लगाकर इंटरनेट बंद कर संपर्क बंद कर कानून बना कर मनमानी करने के बाद देशहित में समानता के अधिकार को मंज़ूर करने को मनवा लेंगे। मगर मुझे पता है जिन्होंने सवाल किया है उनको भी मालूम है सरकार या सत्ताधारी दल को वोटों की राजनीति ऐसा कभी नहीं करने देगी। अन्यथा आरक्षण तो केवल दस साल तक रहना था और उसका प्रतिशत भी कम था जिसे बढ़ाते बढ़ाते पचास फीसदी को भी लांगने की नौबत आ गई है। जो दल जाति पाती की राजनीति को गलत बताया करते थे उन्हीं के नेता रोज़ किसी समुदाय की राजनीति को बढ़ावा देने का काम करते हैं। सच तो ये है कि आरक्षण का भी लाभ कुछ अमीर और राजनैतिक हैसियत वाले लोग उठाते रहे हैं और बाकी अधिकांश लोग इस झांसे में आरक्षण की चाह में दौड़ में पीछे ही नहीं रह गए बल्कि दौड़ से बाहर ही रहे हैं।
मगर इन दोनों में बहुत अंतर है क्योंकि कश्मीर की बात विलय के अनुबंध और विश्वास की थी और ऐसे में एकतरफा ढंग से निर्णय करना शायद समस्या का स्थाई समाधान नहीं भी साबित हो पाए। जबकि आरक्षण से देश को कितना नुकसान हुआ है और जिस मकसद से आरक्षण लागू किया 70 साल बाद भी मकसद हासिल नहीं हुआ है। करोड़पति और बड़े बड़े पद पर पहुंचे लोग आरक्षण से और भी ऊपर पहुंच जाते हैं जबकि उनको आरक्षण की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए और जो उसी वर्ग से वंचित हैं उनको कोई लाभ नहीं मिलता है। सबसे महत्वपूर्ण बात देश में काबलियत को न्याय नहीं मिलना है जब काबिल लोग नहीं बिना काबलियत के लोग सरकार या देश समाज के साथ उचित सेवाएं देने में असफल रहते हैं। डॉक्टर शिक्षक इंजिनीयर जैसे कार्य अगर धनवान पैसे से दाखिला लेकर या आरक्षण वाले आरक्षण के कारण दाखिला पाकर बनते हैं तब उनका असर लोगों की ज़िंदगी पर पड़ता है। अब तो हर कोई अपने अपने लिए स्वार्थ को महत्व देता है आरक्षण की मांग बढ़ती गई है। किस को देश की समाज की भलाई की चिंता है।
आरक्षण की व्यवस्था की गई थी सदियों तक दलित शोषित वर्ग को बराबरी पर लाने को। मगर स्वार्थ की अंधी राजनीति ने इसको किसी दावानल की आग की तरह बना दिया है। शिक्षा पाने को नौकरी पाने को कुछ समय तक छोटी जाति समझे गए लोगों को अवसर देने इसकी ज़रूरत थी मगर समय सीमा बढ़ाते बढ़ाते और पदोन्नति से लेकर राजनीति तक में काबलियत से अधिक महत्व स्वार्थ को देने से ये कोई लाईलाज रोग बन गया है। अब आरक्षण केवल दलित को नहीं अन्य भी अघोषित आरक्षण हासिल किया जाने लगा है। संसद में महिला आरक्षण भले नहीं मिला हो मगर धनवान और बाहुबली लोगों को अवसर मिलना उसी तरह का ही है। राजयसभा को तो धनपशु लोगों का राजनीति के नाम पर जाने क्या करने का स्थान बना दिया गया है। ये हैरानी की बात है कि अपराधी छवि के लोगों को सभी दलों ने शामिल किया है चुनावी जीत को देश हित से अधिक महत्व देकर। कितने काबिल लोग संसद की शोभा और गरिमा बढ़ाया करते थे लेकिन आजकल कैसे कैसे लोग वहां माननीय कहलाते हैं। सरकार ने सब्सिडी की सहायता खुद लोगों को लेना बंद करने की पहल की ताकि जिनको वास्तव में ज़रूरत है उनको मिल सके। फिर आरक्षण को भी जो लोग संपन्न हैं क्यों नहीं छोड़ सकते अपने ही वर्ग के ज़रूरतमंदों को मिल सके इस खातिर। सबसे अधिक गलत असर हर राज्य हर समाज में आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलनों से नफरत हिंसा और लोगों को विभाजित करने का किया है। आज हालत ये है कि इसको हटाने की बात कोई राजनेता या दल करने का साहस नहीं करता अपने दलीय हित को देशहित से पहले समझते हैं। कम से कम देश की व्यवस्था चलाने वाले संसद विधायक या बड़े पद पर नियुक्त अधिकारी काबिल होने के आधार पर बनने ज़रूरी हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसा नहीं है और चुनावी और सत्ता की रणनीति ने सभी जगह आरक्षण और चंदे या बाहुबल की ताकत का गणित साधने का काम किया है। हम कितने देशों से विकास में पिछड़े हैं ऐसी ही गलतियों के कारण और कोई इस गलती को सुधारने की बात नहीं सोचता है।
धारा 370 का असर कुछ लोगों और कश्मीर तक रहा है लेकिन आरक्षण ने देश भर को नुकसान देने का काम किया है। आज महिलाएं शिक्षा खेल सभी जगह अपनी मेहनत और काबलियत तथा विश्वास के बल पर परचम लहरा रही हैं तो राजनीति में ही इसकी ज़रूरत क्यों है। सबसे अधिक विडंबना की बात आरक्षण का लाभ पहले राजनीति करने वाले परिवार की महिलाओं को ही नहीं मिला बल्कि पंचायत आदि में पत्नी या घर की महिला नाम की सदस्य होती हैं और उनकी जगह पुरुष पति या भाई या कोई परिवार का सदस्य उनकी जगह काम और अधिकारों का उपयोग करते हैं। छोटी से छोटी नौकरी पाने को योग्यता निर्धारित है मगर संसद विधायक बनने को कोई योग्यता नहीं बस जीतने को धन और संसाधन चाहिएं। आज़ादी के इतने साल बाद अगर परिवारवाद और बाक़ी सभी स्वार्थ की राजनीति को खत्म करने की बात की जाती है तो क्यों इस को लेकर उलटी गंगा बहती है और हर दल लोगों को आरक्षण देने का वादा कर बहलाता भी है और इस को बढ़ावा देकर असमानता को समानता लाने की राह घोषित करता है जबकि सच ये है कि हर देश काबिल लोगों को अवसर देने से ही प्रगति कर सकता है। देश को समान रूप से विकसित करने को ऐसी सभी दीवारों को हटाना ज़रूरी है। जब बात चली है तो किसी एक की नहीं सबकी समानता की की जाये।
सोशल मीडिया पर जो लोग कश्मीर को लेकर जाने क्या क्या ऊल -जुलूल बातें कह रहे थे अब इस विषय पर भी बोल सकते हैं उसी तरह से या फिर अपनी बारी आई तो बोलती बंद हो जाती है। अगर कश्मीर में सबका अधिकार बराबर हो तो फिर ये आरक्षण भी समानता का अधिकार छीनता है। मगर विडंबना है कि यहां तो ऐसे भी लोग हैं जो साहित्य को भी दलित और अन्य नाम देते हैं उनकी दुकानदारी है।
आरक्षण की व्यवस्था की गई थी सदियों तक दलित शोषित वर्ग को बराबरी पर लाने को। मगर स्वार्थ की अंधी राजनीति ने इसको किसी दावानल की आग की तरह बना दिया है। शिक्षा पाने को नौकरी पाने को कुछ समय तक छोटी जाति समझे गए लोगों को अवसर देने इसकी ज़रूरत थी मगर समय सीमा बढ़ाते बढ़ाते और पदोन्नति से लेकर राजनीति तक में काबलियत से अधिक महत्व स्वार्थ को देने से ये कोई लाईलाज रोग बन गया है। अब आरक्षण केवल दलित को नहीं अन्य भी अघोषित आरक्षण हासिल किया जाने लगा है। संसद में महिला आरक्षण भले नहीं मिला हो मगर धनवान और बाहुबली लोगों को अवसर मिलना उसी तरह का ही है। राजयसभा को तो धनपशु लोगों का राजनीति के नाम पर जाने क्या करने का स्थान बना दिया गया है। ये हैरानी की बात है कि अपराधी छवि के लोगों को सभी दलों ने शामिल किया है चुनावी जीत को देश हित से अधिक महत्व देकर। कितने काबिल लोग संसद की शोभा और गरिमा बढ़ाया करते थे लेकिन आजकल कैसे कैसे लोग वहां माननीय कहलाते हैं। सरकार ने सब्सिडी की सहायता खुद लोगों को लेना बंद करने की पहल की ताकि जिनको वास्तव में ज़रूरत है उनको मिल सके। फिर आरक्षण को भी जो लोग संपन्न हैं क्यों नहीं छोड़ सकते अपने ही वर्ग के ज़रूरतमंदों को मिल सके इस खातिर। सबसे अधिक गलत असर हर राज्य हर समाज में आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलनों से नफरत हिंसा और लोगों को विभाजित करने का किया है। आज हालत ये है कि इसको हटाने की बात कोई राजनेता या दल करने का साहस नहीं करता अपने दलीय हित को देशहित से पहले समझते हैं। कम से कम देश की व्यवस्था चलाने वाले संसद विधायक या बड़े पद पर नियुक्त अधिकारी काबिल होने के आधार पर बनने ज़रूरी हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसा नहीं है और चुनावी और सत्ता की रणनीति ने सभी जगह आरक्षण और चंदे या बाहुबल की ताकत का गणित साधने का काम किया है। हम कितने देशों से विकास में पिछड़े हैं ऐसी ही गलतियों के कारण और कोई इस गलती को सुधारने की बात नहीं सोचता है।
धारा 370 का असर कुछ लोगों और कश्मीर तक रहा है लेकिन आरक्षण ने देश भर को नुकसान देने का काम किया है। आज महिलाएं शिक्षा खेल सभी जगह अपनी मेहनत और काबलियत तथा विश्वास के बल पर परचम लहरा रही हैं तो राजनीति में ही इसकी ज़रूरत क्यों है। सबसे अधिक विडंबना की बात आरक्षण का लाभ पहले राजनीति करने वाले परिवार की महिलाओं को ही नहीं मिला बल्कि पंचायत आदि में पत्नी या घर की महिला नाम की सदस्य होती हैं और उनकी जगह पुरुष पति या भाई या कोई परिवार का सदस्य उनकी जगह काम और अधिकारों का उपयोग करते हैं। छोटी से छोटी नौकरी पाने को योग्यता निर्धारित है मगर संसद विधायक बनने को कोई योग्यता नहीं बस जीतने को धन और संसाधन चाहिएं। आज़ादी के इतने साल बाद अगर परिवारवाद और बाक़ी सभी स्वार्थ की राजनीति को खत्म करने की बात की जाती है तो क्यों इस को लेकर उलटी गंगा बहती है और हर दल लोगों को आरक्षण देने का वादा कर बहलाता भी है और इस को बढ़ावा देकर असमानता को समानता लाने की राह घोषित करता है जबकि सच ये है कि हर देश काबिल लोगों को अवसर देने से ही प्रगति कर सकता है। देश को समान रूप से विकसित करने को ऐसी सभी दीवारों को हटाना ज़रूरी है। जब बात चली है तो किसी एक की नहीं सबकी समानता की की जाये।
सोशल मीडिया पर जो लोग कश्मीर को लेकर जाने क्या क्या ऊल -जुलूल बातें कह रहे थे अब इस विषय पर भी बोल सकते हैं उसी तरह से या फिर अपनी बारी आई तो बोलती बंद हो जाती है। अगर कश्मीर में सबका अधिकार बराबर हो तो फिर ये आरक्षण भी समानता का अधिकार छीनता है। मगर विडंबना है कि यहां तो ऐसे भी लोग हैं जो साहित्य को भी दलित और अन्य नाम देते हैं उनकी दुकानदारी है।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अंग दान दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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