जुलाई 04, 2019

जो बोओगे वही काटोगे ( सामाजिकता की बात ) डॉ लोक सेतिया

 जो बोओगे वही काटोगे ( सामाजिकता की बात ) डॉ लोक सेतिया

 विषय का विस्तार बहुत है , चिंता का अंबार बहुत है। निरर्थक की बहस नहीं है समझने को सार बहुत है। सब पहले यही समझते हैं हमने अपनी संतान को अच्छी परवरिश दी है बड़े होकर समझेंगे हमारी उलझन को। किसी और की बात सुनते हैं पढ़ते हैं कि ऐसा हुआ क्या कर दिया तो दिल में पहली बात आती है खुद उन्होंने भी यही किया होगा शायद अपने बड़ों के साथ। मगर ऐसा होता नहीं है हर माता पिता अपनी संतान को अपनी हैसियत से बढ़कर नहीं है पास वो भी उपलब्ध करवाना चाहते हैं। बच्चों की बिना अर्थ की तुतली आवाज़ को भी सुन कर ख़ुशी महसूस करते हैं उनको बढ़ावा देते हैं फिर भी वही बच्चे बड़े होने पर माता पिता की बातों को अनावश्यक उपदेश कहकर अनसुना करते हैं कभी खिल्ली उड़ाते हैं और समझते हैं हम पढ़ लिख कर आधुनिक समाज को जानते हैं इनको खबर नहीं दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है। तमाम बच्चे समझते हैं हमने माता पिता को पैसा कमा कर दिया सब सुख सुविधा उपलब्ध करवाते हैं इस से बढ़कर उनको क्या चाहिए। बस उनको इतना सा ही तो समझाते हैं जैसा हम सोचते हैं आप वैसा किया करो। रिश्तों का संबंध कभी शर्तों पर नहीं कायम रहता है माता पिता संतान को किसी अनुबंध में बांधकर नहीं रखते हैं कि आपको बदले में इस तरह करना होगा। मगर फिर भी बड़े होकर हर बच्चे को लगता है मुझे जितना मिला थोड़ा है और माता पिता को भी शिकायत होने लगती है इसकी उम्मीद नहीं की थी। यही बात घर से बाहर समाज की है और देश को लेकर भी इक निराशा दिखाई देती है जिस जिस से जो अपेक्षा है पूरी नहीं होती हर कोई समझता है मैं जो भी करता हूं ठीक करता हूं। अपने आप से बाहर निकल कर समझते हैं जो कड़ी घर से शुरू होती है पूरे समाज और देश को जोड़ती हुई निर्धारित करती है हम क्या क्यों कैसे हैं। 

हमने संतान को बड़े होकर क्या करना है क्या बनकर दिखाना है कैसे आधुनिक ढंग से जीना है कितना धन किस किस तरीके से जोड़ना है नाम शोहरत पाने को क्या करते हैं दुनियादारी की समझ देते हैं। अच्छे इंसान बनने की सच कहने के साहस की ईमानदारी की कर्तव्य की बातें सिखाना शायद हम सोचते हैं बड़े होकर खुद सीख जाएंगे बच्चे। हमने बहरी परिवेश कपड़े पहनने अच्छे नज़र आने की बात समझाई मगर भीतर मन से सुंदर होने का सबक पढ़ाया नहीं या खुद हमें भी नहीं पढ़ाया गया था। हम चाहते हैं जो बनाना उसको बनाने को पहले बहुत कुछ करना भी था जो किया ही नहीं। हमने बचपन से सभी से अनावश्यक मुकाबला करने की सोच बना ली थी और अपनी संतान को तुम औरों से किस बात में कम हो सबसे बढ़कर समझदार हो की भावना को स्थापित किया और बढ़ावा दिया है। अपनी गलती को समझना तो क्या स्वीकार भी नहीं करना ऐसी आदत बनाने के दोषी हम खुद हैं। मैं ये हूं मैं वो हूं जाने हर किसी को खुद को बेकार इक अहंकार कैसे आ जाता है जो बाहर हर किसी को अपने से कमतर समझते समझते घर में भी सब से काबिल होने का गुरुर पैदा कर देता है। स्वाभिमान की बात और होती है आत्मसम्मान की कीमत नहीं समझते हम मतलब को गधे को बाप कहना पड़ता है ये धारणा बना ली है। जिन विकसित देशों में जाकर व्यवस्था और सब बड़े छोटे बराबर होने को देख हम तारीफ करते हैं खुद अपने देश और समाज में आचरण करते हुए उस तरह नहीं चलते हैं। मनमानी और मतलबपरस्ती की आदत को हमने समझा है अवगुण नहीं खासियत है अपनी बुरी बात को अच्छा साबित करना चाहते हैं। 

कितने अच्छे स्कूल कॉलेज की पढ़ाई कितना अच्छा कारोबार हो जो सबसे महत्वपूर्ण है नैतिक आचरण जो जैसा है उसी तरह का नज़र आना और गलती करने पर पछतावा या भूल का सुधार करने का हौंसला रखना कोई सोचता ही नहीं इनके बिना आदमी विवेक शून्य बनकर ऐसा समाज बनाता है जो संवेदना से रहित है। ऊपर चढ़ने की चाहत में राह उचित अनुचित का विचार करते ही नहीं हैं। आधुनिकता और झूठी दिखावे की सभ्यता ने हमसे जो बेहद मूलयवान था छीन लिया है जो दिया है वो सच कहा जाये तो किसी काम का नहीं है। हीरा खोकर पत्थर जमा करने का काम करते हैं हम लोग। मगर सब जानते समझते ऐसा होने कैसे देते हैं हम , कारण है कि हम चिंतन नहीं करते अपने बारे न देश समाज के बारे। कोई कौन होता है हमें उपदेश देने वाला हम सही हैं या गलत उनको क्या लेना देना। खुद अपने आप से डरते हैं खुद को आईने में देखने का साहस नहीं करते। जब किसी से कोई शिकायत रखते हैं तब क्या सोचा कभी औरों को भी हमसे कितनी शिकायत हो सकती हैं। जब हम मज़बूर होते हैं तब समझते हैं बेबसी का दर्द क्या है लेकिन जब हर किसी की विवशता पर हंसते हैं मज़बूर होने पर किसी का शोषण करते हैं भूल जाते हैं इंसानियत क्या है।

      नाम मुहब्बत प्यार के अपनेपन के हैं फिर भी इन में सब कुछ होता है मधुर संबंध मिलना बड़ा कठिन है। लोग हैं जो निभाए जाते हैं जैसे कोई बोझ ज़िंदगी ने सर पर रख दिया है ढोना मज़बूरी है। हर रिश्ते की कुछ कीमत होती है जो चाहे अनचाहे चुकानी पड़ती है। रिश्ते बनाते नहीं हैं बने बनाये मिलते हैं और निभ सके चाहे न निभे निभाने पड़ते हैं। दिल का दिल से कोई नाता होता भी है सच कोई नहीं जानता बात दिल की कहते हैं दिल से पूछो दिल की दिल ही जानता है। दर्द से दिल भरा होता है फिर भी मिलते हैं हंसते मुस्कुराते हुए ये चेहरे हैं कि मुखौटे हैं जो क़र्ज़ की तरह होटों पर हंसी रखनी होती है और अश्कों को छुपकर किसी कोने में बहाना होता है अकेले अकेले। दुनिया भर में कोई कंधा सर रख रोने को नहीं मिलता कोई आंचल पलकों के भीगेपन को पौंछता नहीं है। दर्द देते हैं अश्क मिलते हैं रिश्ते क्या कोई ख़ंजर हैं जो घायल करना जानते हैं मरहम लगाना नहीं आता है। ये जो सुनते हैं हमदर्दी के साथ निभाने के नाते किस दुनिया की बात है इस दुनिया में तो नहीं मिलते खोजते रहते हैं जीवन भर। मुझे अकेला छोड़ दो कौन है जो ऐसा कहना नहीं चाहता पर कहा नहीं जाता है कहने पर सवाल होते हैं। जब आपको साथ चाहिए आप अकेले होते हैं भरी महफ़िल में और जब कभी आपको अकेले रहना होता है भीड़ लगी रहती है। कोई तकलीफ हो लोग आते हैं हालचाल पूछने को मगर ज़ख्मों को छेड़ कर दर्द बढ़ा जाते हैं , रिश्ते हैं रिश्तों की रस्म निभा जाते हैं। ज़रूरत होती है बुलाओ भी नहीं आ सकते पर बिन बुलाये भी चले आते हैं कितने अहसां जताते हैं।  
 
  बेगानों ने कहां किसी को तड़पाया है ये किस्सा हर किसी ने सुनाया है जिसको चाहते हैं उसी ने बड़ा सताया है। दर्द देकर कोई भी नहीं पछताया है हर अपने ने कभी न कभी सितम ढाया है। रिश्ते ज़ंजीर हैं रेशम की डोरी नहीं हैं हर किसी का इक पिंजरा है बंद रखने को कैद करने को। रिश्ते आज़ादी नहीं देते हैं जाने कितने बंधन निभाने होते हैं हंसते हंसते तीर खाने पड़ते हैं। कोई नाता नहीं जो खुली ताज़ा हवा जैसा हो जिस का कोई खुला आकाश हो पंछी की तरह उड़ने को फिर शाम को घौंसले में लौट आने को। कितनी शर्तों पे जीते मरते हैं सच नहीं कहते इतना डरते हैं , बात झूठी करनी पड़ती है करते हैं। सुलह करते है फिर फिर लड़ते हैं। मतलब की दुनियादारी है हर रिश्ता नाता बाज़ारी कारोबारी है हर पल बिकती है वफ़ादारी है कितनी महंगी खरीदारी है। भीड़ है हर तरफ मेला है जिस तरफ देखो इक झमेला है कोई बवंडर है कि तूफ़ान कोई ये जो इतना विशाल रेला है। जीना किसने दुश्वार किया है हर किसी को गुनहगार किया है कभी छुपकर कभी सरेबाज़ार किया है। अपने भी तो रिश्तों का व्यौपार किया है खोने पाने का हिसाब हर बार किया है। कितने रिश्तों ने परदा डाला है कितनों ने शर्मसार किया है। ये रिश्ते हैं कि पांव की बेड़ियां हैं हाथ पकड़े हैं कि लगी हथकड़ियां हैं। ज़िंदगी भर जिसको निभाया है हुआ फिर भी नहीं अपना पराया है इक बार नहीं सौ बार आज़माया है। अब नहीं मिलती धूप के वक़्त कहीं भी छाया है। इक गीत याद आया है। 
  
       आज आगे की बात करते हैं। इक कहानी जैसी बात है दो अजनबी मिलते हैं जान पहचान होती है। कोई कहता है अकेला हूं मुझे साथ लेते चलो। चलना है तो चल सकते हो मेरे साथ लेकिन मैं नंगे पांव पैदल चलता हूं और बस चलते जाना है बने बनाये रस्ते पर नहीं खुद अपनी राह बनाता हूं। तुम जब तक साथ चल सकते हो चलना जब थक जाओ रुक जाना तेज़ जाना हो आगे बढ़ जाना कोई शर्त नहीं साथ निभाने की जितना साथ चल सकते हैं चलना जब नहीं निभे तो अलग हो जाना किसी शिकायत गिले शिकवे के। तुम को मेरी राह कठिन लगेगी कभी तो चले जाना अपनी मर्ज़ी की राह पर अलविदा कहकर। मुझे नहीं आता है दिखावे की दुनियादारी निभाना और मुझे औरों को भी साथ लेकर चलना है खुद आगे बढ़ने को किसी को राह में नहीं छोड़ना है। धन दौलत महंगे उपहार नहीं हैं खाली जेब है और खुश रहता हूं जिस भी हाल में , मिलते हैं लोग बिछुड़ते रहते हैं यादें बनकर रह जाते हैं। आज तुम मुझे कोई कीमती उपहार देना चाहते हो कल मुझसे चाहोगे बदले में शायद नहीं दे पाऊं ये जो तुम नहीं लेना चाहता दे रहे हो यही अमानत है जब भी चाहो लौटा दूंगा मगर मुझे रिश्तों में हिसाब करना नहीं आता है। बहुत कुछ है जो एक साथ रहते मिलता है जिसको धन दौलत से तोला नहीं जा सकता है। कुछ भी नहीं छुपाया था सब बताया था अपनी विवशता अपनी सोच और अपने मकसद को लेकर भी। अचानक सवाल करने लगे आपकी कोई बात मुझे मंज़ूर नहीं है और मज़बूरी को अविश्वास समझ लिया अब और नहीं आपके साथ चलना संभव है। ठीक है जितना साथ चले अच्छा है। ये इक पंजाबी की कविता या ग़ज़ल की बात है। कोई झूठ नहीं कोई हेरा फेरी नहीं मगर मंज़िल अपनी अपनी जाना है तो किसी मोड़ पर राह बदल सकती है। हम लोग रिश्तों को इक कैद बना लेते हैं दोस्ती या प्यार या कोई भी नाता हो चाहते हैं अपनी शर्तों पर साथ निभाना है लेकिन दिल से कोई ऐसा नहीं कर सकता है। घर को पिंजरा मत बनाओ रिश्तों को जंजीर बनाकर साथ जकड़ने से रिश्ता इक बोझ बन जाता है। कोई मिलता है तो किसी मोड़ पर अलग भी होना पड़ता है ऐसे में बिछुड़ने का दर्द हो मगर गिले शिकवे कर जो मधुर नाता रहा उसको कड़वी याद बनाना उचित नहीं है।

          जीवन खोने और खो कर पाने का नाम है। हम पाना सब कुछ चाहते हैं खोने को तैयार नहीं होते है। सभी कुछ आज तक किसी को नहीं मिला है। जो मिला उसको लेकर खुश नहीं होते और जो नहीं मिल सका उसको लेकर दुःखी रहते हैं। दोस्ती रिश्तों के संबंध में देना है तो बदले में पाने की शर्त रखकर मत दो क्योंकि जितना भी मिलेगा आपको कम लगेगा जितना दिया वो बहुत अधिक लगता है। जब पलड़े में तोलने लग जाते हैं तो दुनियादारी होती है अपनापन प्यार मुहब्बत नहीं बचता है। फिर आपको बार बार जतलाना पड़ता है किसी को चाहते हैं जबकि जतलाने की बताने की ज़रूरत होनी नहीं चाहिए। 

 

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