गणित और बही-खाते का फर्क ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
गणित किताबी बात है मेरा दोस्त दसवीं के गोस्वामी जी ने मुझे कहा था हम हैरान होते थे तुम सौ में से सौ अंक कैसे हासिल कर लेते थे हम तो मुश्किल से पास होकर खुश हो जाते थे। सबूत मेरी दसवीं की नंबर वाली सूचि है पास होने पर मिले सर्टिफिकेट पर अंकित। मगर हिसाब किताब कारोबार या दुनिया और रिश्तों का मुझे ज़रा भी नहीं समझ आया। आजकल सरकार भी बजट को बही-खाता बताती है तो मुझे भी लगा जितना याद है थोड़ा लिख कर रखा जाना चाहिए। कभी काम नहीं आएगा मगर दिल बहलाने को ख्याल अच्छा है जन्नत की तरह। तारीख की बात छोड़ देते हैं ज़रा कठिन है हिसाब ज़िंदगी भर का जो है।
बहुत लोग होते हैं जो बच्चों की पढ़ाई लिखाई पालन पोषण पर किया खर्च याद रखने को लिख भी लिया करते हैं। शादी के समय पिता बेटे की कीमत ब्याज सहित चाहता है कन्या पक्ष से। उस ज़माने में बेटी को पढ़ाने पर खर्च नहीं करते थे दहेज जमा करते थे अब बेटियों को पढ़ाने लिखाने और कमाने लगती हैं तब भी बेटे के परिवार की बात आदर की ज़रूरी है दहेज नहीं आजकल शान रखने की बात की जाती है। आपकी शान आपके दम पर हो या बहु के घरवालों के सर पर बोझ की तरह नहीं समझते लोग। खैर बचपन में भाई भाई होते थे चाचा मामा बुआजी के बेटे भी भाई बनकर रहते थे। मेरे पास सभी आते और उनकी महमान नवाज़ी खिलाने पिलाने से मौज मस्ती तक जेब खाली होने पर दोस्त से उधार लेकर भी खूब खर्च करता था आदत खानदानी थी पास नहीं हो तो क़र्ज़ लेकर भी महमान की खातिर करनी ज़रूरी है। कभी किसी ने जाकर घर नहीं बताया मैंने उनको क्या क्या दिया कितनी बार घर वापस जाने की किराया भी मुझसे लेते थे। मगर एक बार गलती हुई जो इक भाई से दो सौ रूपये मांग लिए थे और फिर घर से सालों तक ताने सुनता रहा शर्म नहीं आई ऐसे लेते हुए। ये मापदंड मुझे समझ नहीं आये आज तलक भी खैर।
पढ़ाई के बाद काम करने लगा तो थोड़ी सी आमदनी से भी दोस्तों पर खूब खर्च किया। कभी गिनती की बात नहीं थी मिलते आते जाते बेहिसाब खर्च किया जाता रहा। सच्ची बात है शर्म की बात नहीं है अच्छे अमीर परिवार से था मगर अपनी आमदनी गरीबी जैसी होने पर भी खुद को गरीब समझता नहीं था। नाते रिश्ते निभाता सबको आने पर अच्छी तरह से आवभगत करता था। शादी से पहले कमाई जितनी भी थी थोड़ी भी बहुत लगती थी उसी से खुश रहता था। जेब खाली भी होती तब भी दिल खाली नहीं रहता था क़र्ज़ की पीते थे मय और समझते थे यही रंग लाएगी अपनी फ़ाक़ामस्ती एक दिन , शेर ग़ालिब का है। मैं शराबी नहीं हूं और अपने शौक की खातिर क़र्ज़ नहीं लिया जीवन भर। लगता है कोई पिछले जन्म का क़र्ज़ है सभी का मुझ पर बकाया चुकाने को। अब लगता है शायद ब्याजदर बहुत ज़्यादा है सूद भी नहीं चुकता हुआ असल वहीं का वहीं खड़ा है कोई सरकार भी इस की माफ़ी की योजना नहीं बना सकती है।
रिश्ते होते ही उधार की तरह हैं किश्तों को समय पर चुकाना लाज़मी है अन्यथा बदनामी होती है। इक चचेरी बहन बोली थी भाभी को लेन देन की समझ नहीं अब उसको भाई की कमाई थोड़ी है तब भी दोष भाभी पर मढ़ दिया था। मगर पत्नी होने का इतना तो खमियाज़ा भरना होता है आमदनी कम होने पर अगर अधिक होती तो शान भी दिखाती ही। लेकिन हम नासमझ नहीं समझे जैसे भी हो कमाई का ढंग बनाना चाहिए , ज़िंदगी ईमानदारी शराफत और उसूलों पर चलकर नहीं कटती है। शादी से पहले गरीबी का एहसास कभी नहीं हुआ मगर उसके बाद जैसे बीवी का क़र्ज़ बढ़ता ही गया ज़िंदगी भर उनकी मेहरबानियों का हिसाब नहीं चुकाया जा सका मुझसे। शायद दार्शनिक लोग इस विषय पर लिखना समझाना भूल गए कि आपके पास कितनी दौलत कितनी आमदनी होनी लाज़मी है शादी तब करनी उचित है। मुश्किल यही है बाकी दुनिया वाले दोस्त रिश्तेदार आपको कर्ज़दार होने का एहसास कभी कभी करवाते हैं अवसर मिलने पर मगर पत्नी आपको चौबीस घंटे याद दिलवाती है उसी से घर चलता है नहीं तो ऐसे कंगाल का जाने क्या होता। कोई दोस्त भी सलाह नहीं देता शादी करने के खतरे कितने हैं बच सको तो बचना ऊपर से विवाह करने को कहते हैं नाचने खाने पीने को मौका मिलने का लालच इतना अधिक है।
सच्ची बात है कोई किसी का नहीं दुनिया में सब पैसे के नाते रिश्ते दोस्ती भाईचारा निभाते हैं। हर किसी के हिसाब में औरों से लेनदारी ही लेनदारी का पन्ना है देना है जिसका ये उसका काम है अपने हिसाब में लिखता रहे। मुझे इक चायवाले खोखे वाले की पुरानी बात याद आई है , बाज़ार में सभी को दुकानदारों को मुहल्ले वालों को चाय पिलाता था। सबका खाता बना रखा था मगर जब कोई काफी दिन उधारी चुकाने नहीं आता तो अजीब आदत थी हंसी ठिठौली करते हुए छोटू जो चाय देने जाता था उसका नाम लेकर बोलता था , अमुक व्यक्ति नज़र नहीं आया क्या उसके खाते पर मर गया लिख दूं और जो भी सुनता कह उठता चाचा मेरी उधारी जमा कर लो कभी मर गया मत लिख देना। लोग खुद को मर गया घोषिष करने से तब डरते थे अब तो विदेश भागने की परंपरा चल पड़ी है। मगर कोई कुछ भी करता रहे लोग किसी के मरने के बाद भी उसका खाता बंद नहीं करते हैं उसके वारिसों से वसूली जारी रहती है। भारत देश पर हर नागरिक पर विदेशी क़र्ज़ चढ़ा हुआ है बढ़ता जाता है क़र्ज़ चुकाना हम ने हमारी आगे आने वाली संतानों ने है और वसूल करने को नेता लोग हैं सरकारी अमला है जिसको जाने कितने जन्मों का क़र्ज़ हमसे लेना बाकी है। आपको गणित आता होगा मगर सरकार की तरह बही-खाता बनाना नहीं आता जिस में खर्च करने की बात है आमदनी होने की ज़रूरत नहीं है। क़र्ज़ लेकर घी पीने की मिसाल अभी भी कायम है।
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