ज़िंदगी का सफरनामा ( अनकही दास्तान ) डॉ लोक सेतिया
दुनिया मुसाफ़िरख़ाना है कहते हैं मुसाफ़िर आते हैं जाते हैं रुकते हैं कुछ वक़्त को चले जाते हैं आगे अपनी किसी मंज़िल की तरफ। शायद ऐसा हो या शायद ऐसा नहीं हो सबकी दास्तां एक जैसी नहीं होती है। कई किरदार अपनी कहानी से भटकते हुए किसी राह चलते चलते मिल जाते हैं जीवन के सफर में थोड़ी देर को साथ चलते चलते जान पहचान मुलाकात हो जाती है कुछ लगाव हो जाता है। ऐसा ही हमारा सफरनामा है।
तुम इसको मिलना नहीं समझते दूर दूर से देखना इशारे इशारे से बातें करना कभी बुलाना कभी समझना समझाना कभी कोई न कोई मज़बूरी का बहाना। हम जीवन के लंबे सफर पर अपने अपने कारवां के संग चल रहे थे। आधा सफर कट जाने के बाद इस रास्ते पर काफिले साथ साथ चलते बढ़ते रहे। अपने कारवां में हम अकेले थे हमराही तुम्हें छोड़ गया था मेरा साथ नहीं था बिछुड़ गया था। हमसफ़र बन जाते हैं तब बाद में समझ आता है अपनी मंज़िल जुदा जुदा है। कुछ देर सफर का साथ होने से अपनापन लगाव हो जाता है शायद एक दूसरे की आदत होते होते चाहत होने लगती है। लगने लगा था ऐसे ही सफर चलता रहे हम साथ साथ आगे बढ़ते रहें। मगर तभी इक दोराहा आया तो हमारे काफिले दो अलग राहों पर आगे जाने लगे तब हम उदास हैं अलग होना पड़ेगा अपने कारवां को छोड़ना मुश्किल है और रास्ते बिछुड़ रहे हैं हम मिल नहीं सकते बिछुड़ कर जाना भी नहीं चाहते पर चाहने से कुछ भी नहीं होता है जाना अपने काफ़िले के साथ है।
ये कोई मुलाकात नहीं थी पहचान भर थी इत्तेफ़ाक़ था जान पहचान थी। अब कोई नहीं जानता मैं भी नहीं तुम भी नहीं कि जिस राह आगे जाना है अपने कारवां के साथ हमने फिर आगे कहीं कोई मोड़ आएगा जो दोबारा उसी तरह एक साथ नहीं होते हुए भी साथ साथ रहने का अवसर दे सकेगा। हम नहीं जानते कितना सफर बाकी है और फिर क्या कभी कोई मोड़ आएगा जो दो अलग अलग राहों से आने वाले काफिलों को फिर एक राह पर चलने का फैसला सुनाएगा। यहां से राह बिछुड़ रही हैं मुसाफिर को अपने अपने काफिले के साथ चलते जाना है बस इक ख्वाब है या उम्मीद कि इसी तरह आगे फिर कहीं मुड़ते हुए दो अलग काफिलों के रास्ते मिलकर एक हो जाएं और दो मुसाफिर साथ साथ चलते हुए भी अलग नहीं हों सफर एक साथ चलता रहे। हर किसी की ज़िंदगी का सफरनामा ऐसे जाने कितने रास्तों से गुज़रता हुआ चलता जाता है।
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