ये कहां आ गए हम ( काल्पनिक कथा ) डॉ लोक सेतिया
ये तो अदालत है मगर खामोश सी है कोई बहस नहीं सुनवाई नहीं। अपनी किताब देखी और आदेश जारी कर दिया। सच में इंसाफ होता है सब साफ होता है। ऊपर वाले की अदालत अनोखी है वकील नहीं दलील की ज़रूरत ही नहीं। फैसला भी आखिरी है कोई चुनौती भी नहीं दी जा सकती है। स्वर्ग नर्क या कुछ और जन्म निर्णय सुना रहे हैं। अपनी भी बारी आनी थी थोड़ा सा इंतज़ार करना कठिन नहीं था बल्कि देख कर दिल को सुकून सा मिल रहा था। मुझे ही नहीं शायद किसी को भी कोई चिंता कोई घबराहट कोई डर नहीं महसूस हो रहा था। मेरा हिसाब पढ़कर बताया जा रहा जो मुझ को ही सुनाई दे रहा था मुझसे पहले किस को क्या कहा गया मुझे नहीं सुनाई दे रहा था। पढ़ने वाले ने बताया ये भी उसी तरह का बंदा है जिसको ऊपर वाले से कोई लगाव भक्ति भाव का नहीं था किसी दोस्त से नाते रिश्ते से मोह का धागा इतना अटूट नहीं था कि उन की खातिर सब करने को तैयार हो। देश और समाज को लेकर परेशानी में रहता और फिर भी आनंद का अनुभव करता था जनहित जनकल्याण की बात करते हुए। दोस्ती निभाने को उचित अनुचित की परवाह नहीं करना दुनिया वाला सबक सीखा नहीं कभी समझना नहीं चाहा , किसी को दुश्मन नहीं समझा मगर लोग इसको अपना दुश्मन मानते रहे। ज़ुल्म सहता रहा कोई बदला किसी से नहीं लिया दुश्मनी करने वालों से भी नफरत नहीं करना आता था। पागल लोग होते हैं जो घर अपना फूंक कर खुद ही बाहर खड़े तमाशा देखते हैं। कबीर की तरह हक सच की बात निडरता से निस्वार्थ कहते हैं। निर्णय सुना दिया वहीं ले जाओ उन लोगों के पास छोड़ आओ जो इस तरह के हुए हैं और मुझे दरबान कर्मचारी साथ लेकर चल पड़े थे।पहुंचा उस जगह तो गांधी जी सुभाष भगत सिंह नानक कबीर सभी महान लोग नज़र आये मगर किसी को मेरे आने से कोई ख़ुशी हुई न कोई ग़म का अनुभव ही। अभिवादन किया परिचय दिया तो सब ने पूछा अपने भारत देश का क्या हाल है। पहली ही मुलाकात में उनको सब हाल कैसे समझाता बस कहा कि आप सबने कितना किया वतन को स्वर्ग जैसा बनाने को मगर अभी भी बहुत करने को बाकी है मगर जाने क्यों आजकल के नायक कहलाने वालों को उसकी चिंता ही नहीं है। दिन पर दिन दशा लगता है सुधरने के बजाय बिगड़ती जा रही है। भारत शीर्षक से नई फिल्म की चर्चा है मैंने नहीं देखी मुमकिन है उस में वास्तविकता की कोई बात की गई हो अन्यथा तो हर तरफ झूठ का बोलबाला है। और तो और अभी पर्यावरण दिवस पर हमने पेड़ भी लगाए तो झूठ के ही असली पेड़ को उसकी छांव में बैठे सभी अपने अपने स्वार्थ की कुल्हाड़ी से काटने को लगे है। चोर चोर मौसेरे भाई की कहावत सब तरफ सच होती लगती है। मुझे कहा शायद आपको मुंह से बोलकर बताने में संकोच हो रहा मगर सुना है कोई लिखने वाले लेखक हो तो थोड़ा समय लेकर विस्तार से भारत फिल्म की नहीं देश की कहानी लिख कर दे देना हम पढ़ कर समझ सकेंगे और इक सबूत भी रहेगा। हम जानते हैं आप कड़वा सच लिखने में संकोच नहीं करने वाले।
कहानी फ़िल्मी या नाटकीय नहीं है वास्तविक है देश की समाज की। पहले किस की बात करें किसकी नहीं करें जब सब की दशा साल दर साल बिगड़ती जा रही है। कहां वो ऊंचे आदर्श सादा जीवन उच्च विचार और कहां आधुनिकता की अंधी दौड़ जिस में शानदार आडंबर का जीवन बाहर से दिखाई देता है और विचार कुछ भी नहीं बस खोखली बातें हर कोई करता है। यहां हर कोई समझता है बताता है क्या क्या करना देश समाज के लिए अनुचित है मगर अपने आचरण में ऐसे ही खलनायक जैसे लोगों को पसंद भी करते हैं और उस जैसा बनना भी चाहते हैं। राजनीति की आलोचना बुराई करते हैं मगर अवसर मिलते ही खुद अच्छी राजनीति करने का साहस नहीं करते हैं और सत्ता मिलते ही उसी कीचड़ में स्नान करने को गंगा स्नान मानते हैं। सरकार का अर्थ ही कुर्सी मिलते ही खुद को दोषमुक्त और भला पुरुष मनवाना हो गया है। जो शिक्षक से ज्ञान का दान करते थे शिक्षा का व्यौपार कोचिंग क्लासेज या आधुनिक स्कूल धनवान लोगों के बच्चो के लिए खोलकर कारोबार करते करते लूट का धंधा करने लगे , जो अधिकारी देश की सेवा को नियुक्त हुए कर्तव्य की भावना छोड़ मनमानी करने और अहंकार तथा लालच से राह से भटक गए हैं। कारोबार करने वालों ने ईमानदारी से उचित कमाई करना छोड़ अनुचित ढंग से पैसा कमाने को ईमान को बेचने लगे हैं हर चीज़ में मिलावट धोखा हेराफेरी की आदत ने इंसान और इंसानियत को भुला दिया है। डॉक्टर सबको स्वस्थ्य देने का मकसद भूलकर केवल पैसे की हवस की खातिर भगवान कहलाने की जगह अपने धर्म को भुलाकर धन दौलत सुख सुविधा की अंधी दौड़ में भागते हुए बदनाम हो रहे हैं। जैसे हर शाख पर उल्लू बैठा है बर्बादी को बढ़ाता हुआ सा। मगर असली कहानी सरकार की है जिसने सब कुछ ठीक करना था मगर किया सब कुछ गलत पर और भी गलत है। देश की समस्याओं का समाधान करने की जगह समस्याओं को बढ़ाने बुलाने का काम करती रही हैं और आज की सबसे विकट समस्या ही सरकार खुद ही है।
सरकार की सत्ता की कहानी शुरू हुई तो थी जनकल्याण की भावना से मगर आज पहुंच गई है हद दर्जे की मतलब की स्वार्थ की पाप कथा तक। 71 साल पहले देश को आज़ादी दिलवाने को कितने शहीदों ने कुर्बानियां दी थी और इक संविधान रुपी नक्शा बनाकर देश को ऐसा गुलशन बनाने का रास्ता बताया था जिस में सभी नागरिक समान हों खुशहाल हों अम्न चैन से मिलकर साथ रह सकें और हर किसी को उसके हिस्से की रौशनी उसके हिस्से की ज़मीन भी आकाश भी खुली हवा में सांस लेने और सुरक्षित जीने के बुनियादी अधिकार भी हासिल हों। जैसे कोई बड़ा सा घर हो सभी को रहने को छत और सुख सुविधा मिले। ये नहीं है कि भारत देश में संसाधनों की कोई कमी है इतना है कि हर किसी की ज़रूरत पूरी की जा सकती है , जैसा गांधी जी और कई महान चिंतक बताते रहे हैं , लेकिन किसी की भी हवस लालच को पूरा करने को दुनिया का सब कुछ भी काफी नहीं है। सरकार बनाने का अर्थ था निर्माण की बात करना मगर यहां कुछ ही सालों बाद देश की आज़ादी की कीमत को भुलाकर हर कोई मतलबी और लोभी लालची बनता गया। देश सेवा समाज की भलाई को दरकिनार करते गए लोग। इक इमारत जो बहुत कम समय में बनाई जा सकती थी अभी भी उसको बनाना तो क्या उसकी बुनियाद को ही तोड़ने का काम करने लगे हैं। हर कोई सत्ता मिलते ही जो निर्माण हुआ उस से आगे और बनाने पर ध्यान देने की बजाय मैंने बनाया है इसका ख्याल रखते हुए पिछले बने को बदल अपने नाम का पत्थर लगवाना अपनी शोहरत बढ़ाने की देश के खज़ाने को उपयोग कर अपनी तस्वीर लगवाना जैसे फज़ूल के काम करने लगता है।
इक सबक समझाया गया है कुछ महान जन-नायकों द्वारा कि आपको क्या करना है चाहते हैं अपने अंदर रखना चाहिए , क्या कर रहे हैं बताने की ज़रूरत नहीं सामने नज़र आना ही है , क्या नहीं करना चाहिए ये जानना ज़रूरी है और अपनी आलोचना अपना विरोध होने देना चाहिए और अपने आचरण को बदलना सुधारना बेहतर बनाना चाहिए कोई अहंकार नहीं करना चाहिए कि आपके पास सत्ता का अधिकार है तो आपकी हर बात उचित है। देश की तस्वीर और निर्माण की इमारत को ऊंचा ही नहीं बनाना चाहिए बल्कि पारदर्शी भी बनाया जाना चाहिए। सत्ता की हवेली की ऊंची दीवारें और बंद खिड़की दरवाज़े बाहर की आवाज़ को नहीं सुनाई देना जैसे काम कभी नहीं होने चाहिएं। मगर खुद को खुदा कहलाने का पागलपन तमाम राजनेताओं पर ऐसा सवार हुआ कि अपनी ऊंचाई के सामने बाकी सभी उनको बौने लगने लगे। ये किसी कवि की कविता से समझ सकते हैं जो लोग सत्ता के शिखर पर चढ़कर सोचते हैं उनका कद बढ़ गया है नहीं जानते कि शिखर से गिरने पर नमो निशान नहीं रहता है। सत्ता की ऊंचाई आपकी नहीं है पहाड़ की है और जो पहाड़ पर खड़ा होता है उसको नीचे वाले चींटी की तरह लगते हैं मगर नीचे से वो भी और भी बौना लगता है। आपको अपना कद बढ़ाना है तो लालबहादुर शास्त्री जैसे लोगों से सबक सीख सकते हैं बहुत थोड़े समय सत्ता पर रहे मगर आज भी जय जवान जय किसान और बेहद सादगी से रहने के बाद भी देश के गर्व और स्वाभिमान को ऊंचा रखने का कीर्तिमान स्थापित किया था। अब हालत ऐसी है लोग हर बार किसी पर भरोसा करने के बाद पछताते हैं कि हमने क्या समझा और ये कैसा निकला है।
सरकार का अर्थ सत्ता पाकर अपने खुद की खातिर सब पाना नहीं है। चार साल तक सत्ता के मद में मनमानी करना फिर उसके बाद जनता को खुश करने को खिलौनों से बहलाना दोबारा सत्ता हासिल करने को देश की जनता संविधान और उन महान विचारकों भगत सिंह गांधी सुभाष के साथ छल करना है। राजनीति की विडंबना यही है जो विपक्ष में खराब लगता है सरकार खुद की बनाने पर अच्छा लगता है। दूसरे शब्दों में जिस बुराई को खत्म करना था जिस व्यवस्था को बदलना था उसी को अपनाने लगते हैं। कल कोई अपना गुणगान करवाता था आज आप भी वही करवाते हैं। देश से पहले कोई दल कोई संगठन कोई संस्था कोई परिवार कोई रिश्ता नहीं हो सकता है मगर जिसको देखते हैं देश की बात कहने को कहता है मकसद अपने ख़ास लोगों को बढ़ावा देना होता है। कोई विचारधारा नहीं है कल किसी दल का नेता था जिसकी सोच तानाशाही है आज किसी और दल में शामिल हो गया जिसकी सोच धार्मिक भेदभाव वाली है , कहीं कोई अच्छी विचारधारा की बात नहीं केवल सत्ता की गंदी दलगत राजनीति ही सभी को उचित लगती है। अंधे की रेवड़ियां बांटने का काम होता रहा है जिस से पांच दस फीसदी लोग रईस और अमीर बनते गए और देश की अधिकांश दौलत संपत्ति को हथिया लिया है बाकी के हिस्से कुछ भी नहीं बचने देना चाहते हैं। अगर यही देश भक्ति समाज सेवा और जनकल्याण कहलाता है तो कितनी गलत व्याख्या और उल्टा शब्दार्थ है। भला बनने की जगह बुराई को ही भलाई कहने लगे हैं। शुरू में इक नई फिल्म भारत की बात की थी उसकी किसी से कहानी सुनी है। सतर साल से कोई अटका हुआ है और बस पिछली घटनाओं इतिहास को याद करने में समय बर्बाद कर रहा है। विभाजन के बाद भटकता रहा है कभी कुछ कभी कुछ काम करता हुआ फिल्म की कहानी को चूं चूं का मुरब्बा बना दिया है मगर क्या संदेश है कोई नहीं समझ पाया कोई स्वाद नहीं बेस्वाद है मगर मकसद बनाने वाले का कमाई करना है जो अवश्य हासिल किया जा सकता है और यही समानता भारत फिल्म की भारत देश की वास्तविकता से मेल खाती है। जनता को हासिल कुछ नहीं होता और राजनीति की हर दुकान हर शोरूम मुनाफा कमाता है उनके दोनों हाथ में लड्डू हैं , पांचों उंगलियां घी में सर कढ़ाई में हैं और बहती हुई सत्ता की गंगा में नाहाकर समझते हैं उनके पाप धुल गए हैं। अपराधी सांसद मंत्री बनकर समझते हैं जितने गंभीर अपराध किये करते रहे और अभी भी करने हैं उनको इजाज़त मिल गई है जनता ने चुना है तो गुनाह गुनाह नहीं अधिकार बन गए हैं। भारत की यही सच्ची कहानी है जो जनता की व्यथा कथा है और राजनीति की महाभारत की ऐसी किताब है जिस में धर्म की तरफ कोई भी नहीं है।
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