जून 21, 2019

खुदा होने का ख्वाब ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

         खुदा होने का ख्वाब ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

     हर कोई बड़ा होना नहीं महान कहलाना चाहता है। समाज घर परिवार राजनीति कारोबार व्यवसाय से लेकर साहित्य जगत क्या खेल और कला की दुनिया तक इक ऐसी दौड़ है जिसका हासिल यही है कि जितनी पीते हैं मय मयकदा पीकर भी प्यास बुझती नहीं बढ़ती जाती है। नाम शोहरत दौलत ताकत रुतबा किसी रेगिस्तान की मृगतृष्णा की तरह है। लिखने वाले समझाते हैं खुद समझते नहीं उतना ये उतावलापन है जो चैन नहीं लेने देता है। काश अभी और समझते समाज को भली तरह से फिर विचार करते क्या किस तरह का लेखन सार्थक है कालजयी हो सकता है। हमने कल्पना भी नहीं की कभी कि हम जो लिखते हैं छपवाते हैं आने वाले समय में उसकी कीमत क्या समझी जाएगी , कहीं ख़ुदपरस्ती का शिकार होकर स्तही लेखन को किताब का सवरूप देकर हम बाद में रद्दी की तरह सस्ते दाम बिकने का सामान तो नहीं हो रहे हैं। पहले अपने समाज को पूरी तरह जानकर उसकी भलाई और मार्गदर्शन की खातिर कुछ रचने का कार्य करें तो कितना अच्छा होगा।

 ऐसे नाम बहुत हैं जिन पर हम गर्व करते हैं इसी धरती पर रहा करते थे। दो सौ साल बाद ग़ालिब आज भी सभी को दिल से पसंद हैं मुंशी जी भी ज़माना हुआ सौ साल बाद भूले नहीं दुष्यंत को भी चालीस साल हो गये दुनिया से विदा हुए। और भी तमाम लिखने वाले ग़ज़ल कविता कहानी या जिस भी विधा में लिखते थे कमाल करते थे दर्ज हैं दिलों पर बाकी हैं उनके कदमों के निशां कहीं न कहीं। आजकल कितने लोग सोचते हैं किताब छपने से शायद उनकी भी याद उनकी रचनाओं के साथ कायम रहेगी। मगर कभी ये शायद कोई नहीं सोचता होगा कि कितने और भी हुए हैं जो गुमनामी में खो भी गये किसी को नाम भी मालूम नहीं है। बात लाजवाब कलाम की और उनकी महनत के साथ अपने लेखन से उस रिश्ते की भी है जिसको लेकर उन्होंने शिद्दत से साथ जिया भी साथ फ़ना होते भी रहे। उनका मकसद वही था और कुछ भी नहीं जबकि अब हम सभी लोग उस सीमा तक समर्पित होकर शायद ही अपना लेखकीय धर्म निभाते हैं।  मैं समझता हूं हमारी खुशनसीबी है जो हम आज उनको पढ़ सकते हैं और समझने की कोशिश कर सकते हैं।

    ग़ालिब के समय की परेशानी अलग थी मुंशी जी को अपने समाज के वक़्त की बात लिखनी थी और शायर दुष्यंत कुमार की चिंता अपने समय के हालात को लेकर थी देश की आज़ादी के बाद। ग़ालिब विदेशी शासकों के धर्म के नाम पर विभाजन से परेशान थे लोगों को धर्म के नाम पर बांटने का पुरज़ोर विरोध करते थे और हैरान थे कि सब कुछ बिकने लगा है बादशाही तक और शहर क्या फ़ौज भी राजा बेच रहे थे इंसान भी इंसानियत भी। मगर ग़ालिब का स्वाभिमान था जो अपनी ज़िद पर अड़ा रहा झुका नहीं लाख मुश्किलों के बावजूद भी। ग़ालिब सा कद पाने को ग़ालिब बनकर जीना होगा क्या आप टिक सकते हैं आंधी तूफान के सामने डटकर। कह सकोगे कि उनकी बादशाही बादशाहों से कोई छीन सकता है शायर से उसका हुनर उसका कलाम कोई भी नहीं छीन सकता है। ग़ालिब ने चलो हज़ारों ग़ज़ल कही होंगी मगर दुष्यंत कुमार तो पचास ग़ज़ल कहकर जिस बुलंदी पर चमकते हैं आज सौ किताबें लिखने वाले इस दौर के लेखक कभी नहीं पा सकते हैं। शोहरत की बुलंदी से अधिक महत्व रचना की ताकत का समय युग को पार कर सर्वकालिक होने का है। मुंशी जी की हर कहानी आज भी खरी है। ऐसा ही राग दरबारी जैसा उपन्यास लिखने वाले श्रीलाल शुक्ल की बात है और शारद जोशी के व्यंग्य अभी भी लगता है सच हैं।

आजकल मंच पर कविता शायरी कम चुटकलेबाज़ी ज़्यादा की जाती है। घिसी पिटी कविताओं को कितनी बार बार बार दोहराना लगता है लिखना छोड़ शोर करना शुरू कर दिया है। ग़ज़ल की रिवायत को इस कदर छिन्न भिन्न करने लगे है कि कोई ग़ज़ल नहीं इधर उधर से शेर चुनकर तालियां चाहते हैं पैसे के साथ। कलाम को बाज़ार का सामान बना डाला है जो दावा करते हैं आधुनिक काल के नामी कवि शायर हैं। ग़ज़ल से उसकी नाज़ुकी ग़ज़लियत छीनना उचित नहीं है ग़ज़ल का अपना लहज़ा अपने तेवर हैं। तंज करना और बात है और तलवार की तरह जंग लड़ने का अंदाज़ अलग बात है। सच कहना लाज़मी है मगर आधा सच नहीं पूरा भी और खालिस भी मिलावटी नहीं जो इधर नज़र आता है।

        जहां तक अपनी बात है कोई खुशफहमी नहीं है मुझे कभी खुद को कई लोगों की तरह साहित्यकार नहीं समझा है। साहित्य का साधक इक छात्र हूं जो अपने समाज की बात सीधे साफ शब्दों में लिखता है समाज को वास्तविकता बताने को। जानता हूं अपनी सीमाएं हैं शब्दों की और गहराई की मेरे लिए क्योंकि मुझे आना पड़ा है इस तरफ अपनी बात अपने दर्द कहने समाज की हालत को देखते हुए। साहित्य को बहुत कम पढ़ने का अवसर मिला है और रहा भी हूं ऐसे माहौल में जिस में लिखना कोई अच्छी बात नहीं समझी जाती है। फिर भी लिख रहा हूं क्योंकि मेरी कलम मेरा ज़मीर है जो सच है वही लिखती है कलम का सिपाही हूं मैं। मुझे समाज की वास्तविकता को दिखलाना है साहित्य समाज का दर्पण है और समाज की जनहित की बात लिखना अगर किसी को इक पागलपन लगता है तो उनकी समझ है। देश की आज़ादी के दीवाने भी मुझ से रहे होंगे मिलना कुछ भी नहीं था उनको फिर भी देश समाज को लेकर चिंतित परेशान रहे होंगे। बदले में मिलता क्या है किसी को फांसी किसी को जेल किसी को ज़ुल्म सहना पड़ा होगा। अगर यही हासिल है सच कहने का मंज़ूर है। जो लोग समाज देश की बात करने के बदले कुछ चाहते हैं उनको वास्तविक देशभक्ति समाजसेवा और सच्चा धर्म कोई नहीं समझा सकता है। मैंने हर दिन बार बार ये शपथ ली है अपनी राह से हटना नहीं घबराकर न डरकर न किसी फायदे नुकसान को लेकर। नहीं मुझे कोई खुदा बनकर खुदाई पाने की चाह नहीं है हर्गिज़ भी। जिनकी चाहत होगी उनको मुबारिक ये। 

 

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