फूलों की ज़ुबां से कांटों की कहानी ( दास्तां ए दर्दे दिल )
डॉ लोक सेतिया
जाने लिखने वाले किस तरह से अपनी जीवनी लिखते हैं कोई स्याही नहीं मिलती जो इस को बयां कर सके। लिखनी पड़ती है आंसुओं से ही और लिखते लिखते धुंधली हो जाती है। कई बार लिखी है फिर मिटा दी थी दिल नहीं माना अपनों की शिकायत दुनिया से करना , मुझे हर दिन कटघरे में खड़ा करने वालों को सवालों की बौछार के सामने लेकर खुद तमाशा बन जाना तमाशाई भी। फिर आज भीतर की घुटन को बाहर निकालने को लिखने लगा हूं तो पहले साफ करना चाहता हूं दोषी भी मैं हूं अपना खुद का क़ातिल भी मैं खुद ही हूं खुद ज़हर खाता रहता हूं जीने को खतावार भी कोई और नहीं मैं ही हूं । सबने मुझे जीने को जो अमृत पिलाया मेरे लिए विष का काम करता रहा मगर जब भी किसी ने ज़हर दिया पीने के बाद भी मुझ पर असर नहीं हुआ कैसे होता जब इतना अभ्यस्त हो गया था ज़हर का कि ज़हर दवा बनकर सांस सांस में समाता गया । कुछ पुरानी लिखी ग़ज़ल कविता हैं जो लिख कर बात कह भी सकता हूं और कहने की ज़रूरत भी रहेगी नहीं बाकी । बीस साल पहले लिखी नज़्म से शुरुआत करता हूं।
अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग ,आईने से यूँ परेशान हैं लोग।
बोलने का जो मैं करता हूँ गुनाह ,
तो सज़ा दे के पशेमान हैं लोग।
जिन से मिलने की तमन्ना थी उन्हें ,
उन को ही देख के हैरान हैं लोग।
अपनी ही जान के वो खुद हैं दुश्मन ,
मैं जिधर देखूं मेरी जान हैं लोग।
आदमीयत को भुलाये बैठे ,
बदले अपने सभी ईमान हैं लोग।
शान ओ शौकत है वो उनकी झूठी ,
बन गए शहर की जो जान हैं लोग।
मुझको मरने भी नहीं देते हैं ,
किस कदर मुझ पे दयावान है लोग।
कल रात चाहा था कुछ लिखना मगर लिखने के बाद मिटाना पड़ा । कड़वी यादों को भूल जाना पड़ा । मैंने इक घर बनाया था मुहब्बत की खातिर दोस्तों को जब भी बुलाना पड़ा नया ज़ख्म खाना पड़ा । अपने भी अजीब होते हैं कहने को शुभकानाएं दुआएं देते हैं असर करती है तो ज़ख्म पुराने हरे हो जाते हैं । इक नज़्म और भी ज़रूरी है बात को संक्षेप में कहना चाहता हूं ।
आपके किस्से पुराने हैं बहुत ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
आपके किस्से पुराने हैं बहुत ,सुन रखे ऐसे फसाने हैं बहुत।
बेमुरव्वत तुम अकेले ही नहीं ,
आजकल के दोस्ताने हैं बहुत।
वक़्त को कोई बदल पाया नहीं ,
वक़्त ने बदले ज़माने हैं बहुत।
हो गये दो जिस्म यूं तो एक जां ,
फासले अब भी मिटाने हैं बहुत।
दब गये ज़ख्मों की सौगातों से हम ,
और भी अहसां उठाने हैं बहुत।
मिल न पाये ज़िंदगी के काफ़िये ,
शेर लिख लिख कर मिटाने हैं बहुत।
फिर नहीं शायद कभी मिल पायेंगे ,
आज "तनहा" पल सुहाने हैं बहुत।
कभी कभी सालों बाद राज़ खुलते हैं मेरे दिल में कितने लोगों के राज़ दबे हुए हैं । राज़ को राज़ रखना सब नहीं जानते हैं । किसी को कैसे बताता कि जिस नाते को लेकर आपको गिला शिकवा है वो नाता आपका कभी था ही नहीं । कोई पहले से उलझनों में है उसको इतना बड़ा हादिसा मार ही डालेगा ये भी मालूम नहीं कभी किसी को ये भी शिकायत हो सकती है बताया क्यों नहीं । जबकि बताने पर शायद उनको मेरी बात पर भरोसा ही नहीं आये और राज़ मुझे बताने वाला अपनी कही बात को ही बदल दे कि नहीं ऐसा नहीं ऐसा है । मुझे ही नासमझ घोषित करना खूब जानते हैं लोग । छोड़ो उसकी नहीं खुद अपनी कहानी लिखने लगा हूं मगर क्या किया जाये हर किसी की कहानी में कितने किरदार बाकी लोगों के जुड़े रहते हैं । कितना अच्छा होता मेरी कहानी से कई ऐसे किरदारों का वास्ता ही नहीं पड़ा होता । मगर जब मेरी ज़िंदगी की कहानी का हिस्सा बन गए हैं तो उनको कहानी से अलग रखना संभव ही नहीं है । कितनी बार खुद को लेकर समझा तो महसूस हुआ है कि मैं इक ऐसा पौधा हूं जो जाने कैसे इक रेगिस्तान में पनप गया उग आया बिना किसी के चाहत के । कितने लोग गुज़रते हुए रौंदते रहे पैरों तले कितने जानवर खा जाते रहे कोई बाढ़ नहीं थी बचाने को कोई खाद पानी नहीं मिला फिर भी जाने क्यों बार बार उग जाता रहा धरती से अपनी जड़ से हर बार । आप जब भी मेरी कहानी पढ़ना तो मेरी तुलना उस बाग़ के फलदार पेड़ से मत करना जिसको माली ने सींचा पाल पास कर ऊंचा बड़ा किया । मेरा बौनापन मेरा नसीब है हालात के कारण है । फिर इक ग़ज़ल सुनाता हूं ।
शिकवा तकदीर का करें कैसे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
शिकवा तकदीर का करें कैसे ,हो खफा मौत तो मरें कैसे।
बागबां ही अगर उन्हें मसले ,
फूल फिर आरज़ू करें कैसे।
ज़ख्म दे कर हमें वो भूल गये ,
ज़ख्म दिल के ये अब भरें कैसे।
हमको खुद पर ही जब यकीन नहीं ,
फिर यकीं गैर का करें कैसे।
हो के मजबूर ज़ुल्म सहते हैं ,
बेजुबां ज़िक्र भी करें कैसे।
भूल जायें तुम्हें कहो क्यों कर ,
खुद से खुद को जुदा करें कैसे।
रहनुमा ही जो हमको भटकाए ,
सूए- मंजिल कदम धरें कैसे।
अभी कहने को बहुत बचा है समझने को रहा कुछ भी नहीं लगता है । कोई नहीं समझेगा समझ कर भी समझना दुश्वार है । अब कुछ लिखने की ज़रूरत नहीं शायद कुछ कविताएं और इक ग़ज़ल बहुत है कहानी को खत्म करने को अन्यथा कहानी उपन्यास की तरह बोझिल बन जाएगी । कविताएं पहले सुनाता हूं ।
कैद ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
कब से जाने बंद हूंएक कैद में मैं
छटपटा रहा हूँ
रिहाई के लिये।
रोक लेता है हर बार मुझे
एक अनजाना सा डर
लगता है कि जैसे
इक सुरक्षा कवच है
ये कैद भी मेरे लिये।
मगर जीने के लिए
निकलना ही होगा
कभी न कभी किसी तरह
अपनी कैद से मुझको।
कर पाता नहीं
लाख चाह कर भी
बाहर निकलने का
कोई भी मैं जतन ।
देखता रहता हूं
मैं केवल सपने
कि आएगा कभी मसीहा
कोई मुझे मुक्त कराने ,
खुद अपनी ही कैद से।
नाट्यशाला ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
मैंने देखे हैंकितने ही
नाटक जीवन में
महान लेखकों की
कहानियों पर
महान कलाकारों के
अभिनय के।
मगर नहीं देख पाऊंगा मैं
वो विचित्र नाटक
जो खेला जाएगा
मेरे मरने के बाद
मेरे अपने घर के आँगन में।
देखना आप सब
उसे ध्यान से
मुझे जीने नहीं दिया जिन्होंने कभी
जो मारते रहे हैं बार बार मुझे
और मांगते रहे मेरे लिये
मौत की हैं दुआएं।
कर रहे होंगे बहुत विलाप
नज़र आ रहे होंगे बेहद दुखी
वास्तव में मन ही मन
होंगे प्रसन्न।
कमाल का अभिनय
आएगा तुम्हें नज़र
बन जाएगा मेरा घर
एक नाट्यशाला।
लोग वसीयत करते हैं जायदाद दौलत की पैसे की । मेरे पास कुछ भी नहीं ऐसा बचा हुआ जो है किसी के काम का नहीं है । फिर भी इक चाहत है कि मेरे बाद कोई रोना धोना कोई शोक का तमाशा नहीं हो , मुमकिन हो तो मुझे अपना समझने बताने कहने वाले मेरी यही आरज़ू पूरी कर दें कि इक जश्न मनाया जाये ख़ुशी मनाई जाये जीने से मिला ही क्या है दर्द आहें तन्हाई आंसू नफरत का ज़हर पल पल पीना पड़ा है । अच्छा हुआ ख़त्म हुई कहानी जीते जी नहीं मानी बात मरने के बाद इतना तो कर सकते हैं । ग़ज़ल ये भी ऊपर की रचनाएं भी आज कल की नहीं सालों पहले से लिखी हुई हैं । दुनिया बदलती रही मेरी ज़िंदगी ठहरी रही नहीं बदला कुछ भी कभी । ग़ज़ल दिल से कही है ।
ग़ज़ल ( जश्न यारो मेरे मरने का मनाया जाये ) मेरी वसीयत
जश्न यारो , मेरे मरने का मनाया जाये ,
बा-अदब अपनों परायों को बुलाया जाये।
इस ख़ुशी में कि मुझे मर के मिली ग़म से निजात ,
जाम हर प्यास के मारे को पिलाया जाये।
वक़्त ए रुखसत मुझे दुनिया से शिकायत ही नहीं ,
कोई शिकवा न कहीं भूल के लाया जाये।
मुझ में ऐसा न था कुछ , मुझको कोई याद करे ,
मैं भी कोई था , न ये याद दिलाया जाये।
दर्दो ग़म , थोड़े से आंसू , बिछोह तन्हाई ,
ये खज़ाना है मेरा , सब को दिखाया जाये।
जो भी चाहे , वही ले ले ये विरासत मेरी ,
इस वसीयत को सरे आम सुनाया जाये।
बा-अदब अपनों परायों को बुलाया जाये।
इस ख़ुशी में कि मुझे मर के मिली ग़म से निजात ,
जाम हर प्यास के मारे को पिलाया जाये।
वक़्त ए रुखसत मुझे दुनिया से शिकायत ही नहीं ,
कोई शिकवा न कहीं भूल के लाया जाये।
मुझ में ऐसा न था कुछ , मुझको कोई याद करे ,
मैं भी कोई था , न ये याद दिलाया जाये।
दर्दो ग़म , थोड़े से आंसू , बिछोह तन्हाई ,
ये खज़ाना है मेरा , सब को दिखाया जाये।
जो भी चाहे , वही ले ले ये विरासत मेरी ,
इस वसीयत को सरे आम सुनाया जाये।
किसी से भी कोई गिला नहीं शिकवा शिकायत नहीं है । गुनहगार की तरह रहा आपकी दुनिया में मैं । जुर्म भी स्वीकार किये हैं सज़ाएं भी मांगी हैं । कोई माफ़ी कोई रहम की भीख नहीं चाही है। कहते हैं मरने के बाद भूल जाते हैं जाने वाले की खताएं मुमकिन हो तो भुला देना मुझे सभी । अलविदा कहने की ये ज़िंदगी कई बार फुर्सत ही नहीं देती है ।
मुझको मरने भी....दयावान हैं लोग👌👍
जवाब देंहटाएंकाव्यात्मक पंक्तियों से युक्त सुंदर लेख...अपनी ज़िंदगी को लेकर बात करता लोगो के कटु वचनों की बात करता👍