जून 14, 2019

कूड़ेदान की कमी है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

         कूड़ेदान की कमी है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

   कूड़ा है हर तरफ है हर गली सड़क चौराहे गांव कस्बे शहर महानगर भरे पड़े हैं। कूड़ा न नज़र आये तो लगता है अपना देश ही नहीं है कहीं और चले आये हैं। हमारा कमाल है जिस जगह हमने बहुत सजावट रौशनी की होती है कोई सभा समारोह आयोजित करते हैं उसी जगह परदे के पीछे मंच के नीचे लाल बिछी कालीन के नीचे दबा हुआ कूड़ा रहता है। शानदार होटल की रसोई का स्टोर रूम लगता है बदबू का ठिकाना है। कुछ साल पहले मेरे इक लेखक ऑस्ट्रेलिया गए अपनी बेटी पास तो उनको कूड़ा नज़र नहीं आया तो कहा कहीं ऐसी सफाई मेरे देश में होने लगी तो बीस फीसदी लोग भूखे मर जाएं। मगर उनकी जानकारी में कुछ कमी थी इस देश में कूड़ा चुनने वाले और कूड़े का कारोबार करने वाले गली का कूड़ा बीनने वाले ही नहीं हैं।  हम अधिकांश लोग कूड़े को फेंकते नहीं सहेजते हैं। चुनाव में हम जितना कूड़ा मुमकिन हो चुनते हैं राजधानी भेज देते हैं कई ऐसी जगह हैं जहां कूड़ेदान हैं जहां से सरकार चलाई जाती है। ऐसे लोगों में भीतर गंदगी की सड़ांध छुपी होती है बाहर सुंदर लिबास रहता है ठीक जूतों के डिब्बों की तरह मगर जूता पांव में डालते हैं तो मैले होते गंदगी लगते देर नहीं लगती है। पांव की जूती को सर पे बिठाना कहावत सच होती देखनी है तो संसद विधानसभा जाकर देखना जिनको दरवाज़े से बाहर होना चाहिए उनको कुर्सियों पर सजाया हुआ होता है। भरत जी अपने राम की खड़ाऊं सिंहासन पर रख कर शासन क्या चलाया लोग हर जगह जूतों को ऊंचा आसन देकर उसकी आरती करने लगे हैं। बात जूतों की नहीं कूड़े कूड़ेदान और उस से होने वाली कमाई आमदनी शोहरत की की जा रही थी। 

        कूड़ा कहां नहीं है कूड़े को जमा करना उसको सजाना उसको छिपाना उसके होने नहीं होने की चर्चा करना अपने आप में बड़ा धंधा है मुनाफा ही मुनाफा है। स्वछता अभियान के बोर्ड और इश्तिहार दो दिल बाद खुद कूड़े में शामिल हो जाते हैं विज्ञापन लगवाने से कूड़ा उस जगह से जाता नहीं है कहीं। मेरे शहर का सबसे अच्छा पार्क पपीहा पार्क जिस के सामने नगरपरिषद के इश्तिहार लगे रहते हैं उसी के गेट के सामने शहर का सबसे अधिक कूड़ा सुबह से रात तक रहता है। नगरपिशद के सभापति का वार्ड है मगर दीपक तले अंधेरा है। मामला सीधा नहीं है कूड़ा भी कमाई का साधन है कूड़ा डालने का अधिकार यूं ही नहीं मिलता है। अब इस शहर का हर कबाड़ी मालामाल है चलो इक व्यंग्य कविता सुनते हैं। 

सवाल है ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

जूतों में बंटती दाल है ,
अब तो ऐसा हाल है ,
मर गए लोग भूख से ,
सड़ा गोदामों में माल है।

बारिश के बस आंकड़े ,
सूखा हर इक ताल है,
लोकतंत्र की बन रही ,
नित नई मिसाल है।

भाषणों से पेट भरते ,
उम्मीद की बुझी मशाल है,
मंत्री के जो मन भाए ,
वो बकरा हलाल है।

कालिख उनके चेहरे की ,
कहलाती गुलाल है,
जनता की धोती छोटी है ,
बड़ा सरकारी रुमाल है।

झूठ सिंहासन पर बैठा ,
सच खड़ा फटेहाल है,
जो न हल होगा कभी ,
गरीबी ऐसा सवाल है।

घोटालों का देश है ,
मत कहो कंगाल है,
सब जहां बेदर्द हैं ,
बस वही अस्पताल है।

कल जहां था पर्वत ,
आज इक पाताल है,
देश में हर कबाड़ी ,
हो चुका मालामाल है।

बबूल बो कर खाते आम ,
हो  रहा कमाल है,
शीशे के घर वाला ,
रहा पत्थर उछाल है।

चोर काम कर रहे ,
पुलिस की हड़ताल है,
हास्य व्यंग्य हो गया ,
दर्द से बेहाल है।

जीने का तो कभी ,
मरने का सवाल है।
ढूंढता जवाब अपने ,
खो गया सवाल है।

      बहुत देश अपने देश का कूड़ा हमारे देश को बेचते हैं और हम उनका कूड़ा चाव से खरीदते हैं ऊंचे दाम देकर। कूड़ा बड़े काम की चीज़ है कूड़ेदान से किसी को कब क्या मिल जाए कोई नहीं जानता है। ये देश नारी की पूजा करने की बात करता है मगर इसी देश में बच्ची को मारकर कूड़ेदान में फेंक देते हैं। कूड़ेदान से कभी कीमती सामान भी मिल जाता है क्योंकि चोर भागते हुए चोरी का माल कूड़ेदान में डाल जाते हैं वापस आकर उठाने को मगर जब नहीं आ सकते तो कूड़े उठाने वाले को लगता है आज अख़बार टीवी वाले की भविष्यवाणी सच साबित हो गई है। चोरी का माल थाने नहीं पहुंचता इसका दुःख चोर को कम थानेदार को अधिक होता है। सीधा आकर जमा करवाता तो थानेदार की भी तरक्की की राह खुलती ही। चल भाग जा कह कर थानेदार जिसकी चोरी हुई उसको खुश कर लेता बड़े अधिकारी भी खुश हो जाते और खुद भी खुश होता घर बैठे सब अपने आप होने से। कूड़ा चुनना हमारी मज़बूरी है या ज़रूरत इस पर शोध की ज़रूरत है। सब कूड़े जैसे हैं किसी को भी चुनेंगे हाल बदलने वाला नहीं है या फिर हम सोचते हैं बंदा कूड़े से खराब है मगर अपने काम का है कभी ज़रूरत पड़ेगी यही सोचकर चुनते रहते हैं मगर कूड़ा कभी काम नहीं आता है बल्कि कूड़े को छूने से अपने हाथ गंदे होते हैं। मुश्किल है कोई साबुन भी ऐसे कूड़े जैसे लोगों से मिले कीटाणु को खत्म नहीं कर सकते हैं। ये कीटाणु बढ़ते जा रहे हैं कूड़ा भी बढ़ता जा रहा है लेकिन अभी कूड़ेदान कम हैं और कब से कूड़ेदान में आरक्षण की मांग होती रही है। कूड़ा विदेश से मंगवा सकते हैं कूड़ेदान खुद बनाने पड़ते हैं। कहीं कोई कूड़े का पहाड़ लगा देख कर उसकी तस्वीर को सुंदर दृश्य की तरह सोशल मीडिया पर भेजता है। सच्ची बात यही है जितना कूड़ा फेसबुक ट्विटर व्हाट्सएप्प पर है दुनिया में कहीं नहीं है। हम कूड़ा परोसते हैं और उन्हीं हाथों से खाना पीना स्मार्ट फोन को पकड़े चलता रहता है। बाकी आप समझदार हैं अपने घर की सफाई के साथ ये भी साफ़ रखना सीख लेंगे शायद। अपने घर का या दिमाग का कूड़ा किसी और के घर के सामने नहीं डालना। अपने मन का मेल धोना ज़रूरी है क्योंकि कहता हैं " मन चंगा तो कठौती में गंगा "। अर्थ मुझे भी उतना ही समझ आता है जितना आपने समझा है। कूड़े का धंधा कहीं आपको कूड़ा नहीं बना दे और किसी दिन कोई कूड़ेदान आपकी शोभा बढ़ा रहा हो।



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