जून 11, 2019

कितनी लाशों पे अभी तक ( आखिर कब तलक ) डॉ लोक सेतिया

  कितनी लाशों पे अभी तक ( आखिर कब तलक ) डॉ लोक सेतिया 

    जाँनिसार अख्तर जी के शेर से बात शुरू करते हैं। 
 
                      " इन्कलाबों की घड़ी है , हर नहीं हां से बड़ी है । 
                      कितनी लाशों पे अभी तक , एक चादर सी पड़ी है । " 
 
सिर्फ इक कठुआ की घटना नहीं सिर्फ इक नन्हीं ढ़ाई साल की बच्ची से वहशीपन की बात नहीं चिंता की नहीं विचलित करने की बात है हर दिन कोई न कोई कहीं न कहीं घटना घटने पर समाज दंग रह जाता है जानकर कि पुलिस सरकारी अस्पताल से लेकर व्यवस्था का हर भाग इस कदर संवेदनहीनता का शिकार हो गया है कि चंद रुपयों की खातिर अपना ईमान बेचकर गुनहगार को पकड़ने की बात छोड़ उसको बचाने ही नहीं लगता बल्कि गुनहगार के साथ खुद गुनाह में शामिल भी हो जाता है। ये सब देख कर पल भर को हम सन्न रह जाते हैं लेकिन अगले ही पल किसी और घटना की बात करने लगते हैं। ये अधिक चिंता की बात है जो हमने हालात को स्वीकार कर लिया है हमारी सोच में शामिल है कि जो है उसको बदलना संभव ही नहीं है। हम अगर कभी अन्याय का विरोध करने को कदम बढ़ाते भी हैं तो बहुत थोड़ी राह चलकर तक जाते हैं अपनी लड़ाई को बीच में छोड़ हार मान लेते हैं आखिरी अंजाम तक ले जाने का हौंसला नहीं रखते। मगर ज़ुल्म के अन्याय के खिलाफ जंग कभी इतनी आसान नहीं हो सकती है। काली पट्टी लगाना या मशाल लेकर जुलूस निकालना मोमबत्तियां जलाना शायद अब असरकारी रहा नहीं है। 
दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल से शेर हैं। 

आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा , 
चंद ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली। 
 
देख दहलीज से काई नहीं जाने वाली , 
ये खतरनाक सच्चाई नहीं जाने वाली। 
 
चीख निकली तो है होंठों से मगर मद्धम है , 
बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली। 
 
एक तालाब से भर जाती है हर बारिश में , 
मैं समझता हूं ये खाई नहीं जाने वाली। 
 
कितना अच्छा है कि सांसों की हवा लगती है , 
आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली। 
 
तू परेशान बहुत है तू परेशान न हो , 
इन खुदाओं की खुदाई नहीं जाने वाली। 

 ज़ालिम की ताकत बन जाती है ज़ुल्म सहने वालों की सहनशीलता ख़ामोशी डर कायरता। घुट घुट कर जीने से कहीं अच्छा है मकसद की लड़ाई लड़ते लड़ते शहीद हो जाना। कोई मसीहा धरती पर कभी नहीं आएगा हमको बचाने को। अपनी जंग है खुद को लड़नी पड़ती है , ये जो भी लोग आपको सपने बेचते हैं उन से उम्मीद रखना फज़ूल है उनको राजनीति की धर्म की या किसी कारोबार की दुकान चलानी है खुद अपने लिए किसी और के लिए नहीं। स्वर्ग जाने का ख्वाब देखना छोड़ इसी अपनी दुनिया को नर्क जैसी भयानक को बदलकर स्वर्ग जन्नत जैसी बनाने को कोशिश करेंगे तो सब मुमकिन है। नामुमकिन है बिना किसी जतन किये कुछ भी हासिल करना। कोई और दुनिया है नहीं है ये जब सामने होगा देख लेंगे अभी जो दुनिया है जिस में रहते हैं रहना होगा अंतिम सांस तक उसको सांस लेने के काबिल तो बनाया जाए। संक्षेप में दुष्यंत कुमार की सबसे सार्थक ग़ज़ल सुनते हैं समझते हैं। 

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए , 

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। 

आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी ,

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। 

हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गांव में ,

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। 

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं ,

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। 

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही ,

हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

 


 

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