दर्द का हद से बढ़ जाना है दवा बन जाना ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
उनके आने से जो आ जाती है चेहरे पे रौनक , वो समझते हैं बीमार का हाल अच्छा है। दुनिया यही समझ रही होगी किसी ने कोई चमत्कार किया है जो जनता ने फिर से बेशुमार प्यार दिया है। असली राज़ की बात हमसे पूछो कोई हमने कयामत का भी इंतेज़ार किया है। मांगने से जो मौत मिल जाती कौन जीता इस ज़माने में। कितने साल तक राह देखते रहे इसकी कि सबको सब कुछ बराबर मिलेगा , बहार आएगी फूल खिलेंगे। ख्वाब था चकनाचूर हुआ तो अब समझे कि अच्छे दिन जाने क्या क्या सब कहने को थे भला भूख गरीबी का कोई ईलाज होता है। जो बात उपदेशक उपदेश देकर नहीं समझा पाये कि जिस हाल में ऊपर वाला रखे खुश रहना सीखे सीखना चाहिए समझना चाहिए कि जो खराब है उस से खराब भी हो सकता था। खैर मनाओ नहीं हुआ हाल बदहाल , बस इक नेता ने समझा दिया जैसे हो बहुत अच्छी किस्मत पाई है जो मेरा शासन नसीब हुआ है। फिर से इक बार सिर्फ मेरी सरकार। इक नशा कोई जादू छाया जो दर्द देने वाला भी मसीहा कहलाया। सबने राग दरबारी मधुर सुर में गाया अपनी मौत का भी खुद जश्न है मनाया। कफ़स इस कदर है परिन्दों के मन को भाया सय्याद का जाल बिछा जानकर मन ललचाया दाना भी नहीं डाला जाने क्या खाया।
अब इस से खराब क्या होगा सबने सोचा ईलाज क्या होगा। कुए कातिल की बड़ी धूम है चलकर देखें , क्या खबर कूचा ए दिलबर से प्यारा ही न हो। जाँनिसार अख्तर जी की ग़ज़ल का शेर है। ज़िंदगी ये तो नहीं तुझको संवारा ही न हो , कुछ न कुछ हमने तेरा क़र्ज़ उतारा ही न हो। दिल को छू जाती है रात की आवाज़ कभी , चौंक उठता हूं कहीं तूने पुकारा ही न हो। कभी पलकों पे चमकती है जो अश्क़ों की लकीर , सोचता हूं तेरे आंचल का किनारा ही न हो। ग़ज़ल का आखिरी शेर लाजवाब है फिर से सुनने की गुज़ारिश होगी। शर्म आती है कि उस शहर में हैं हम कि जहां , न मिले भीख तो लाखों का गुज़ारा ही न हो।
दर्द इस तरह अश्क बनकर ढलते हैं , लोग ग़म छुपाने को मुस्कुराते नहीं अब ज़ोर से हंसते हैं। बुरा वक़्त टल गया है ये इस का सबूत है। लोग खुद ही चले आते हैं कत्ल होने को , कुछ नहीं मिला दर्द ही मिला मगर उसका दिया सब कबूल है। मुझे ग़म भी उनका अजीज़ है , कि उन्हीं की दी हुई चीज़ है। यही ग़म है अब मेरी आरज़ू , इसे कैसे दिल से जुदा करें। है इसी में प्यार की आबरू वो जफ़ा करें हम वफ़ा करें , जो वफ़ा भी काम न आ सके तो वही कहें कि हम क्या करें। ये राजनीति कैसे आशिक़ी बन गई है सितमगर से प्यार करने लगे हैं लोग। बड़ा नामुराद है सखी दिल का ये रोग दिल धड़कता है कोई क्या जाने घबराहट है दहशत की या किसी बेदिल की चाहत है। हालत कभी इस हद तक खराब हो जाती है जब दर्दो ग़म का एहसास नहीं होता है। कोई ज़हर पिलाता है तो चैन मिलता है ये बात ग़ज़ल से शुरू हुई थी कव्वाली तलक चली आई है। न तो कारवां की तलाश है न तो हमसफ़र की तलाश है , मेरे शौके खाना खराब को तेरी रहगुज़र की तलाश है। मेरे नामुराद जूनून का अब है ईलाज कोई तो मौत है , जो दवा के नाम पे ज़हर दे उसी चारागर की तलाश है। कुछ यही हुआ है कव्वाली का मज़ा ले कर समझना फिर कभी।
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