बंद आंखों से नज़र नहीं आएगा ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया
हम लोग सोचते हैं ईश्वर नज़र नहीं आता तो पता कैसे चले कि वास्तव में खुदा है या इंसान की कल्पना है। लोग किस किस की तलाश करते हैं आखिर ढूंढ लेते हैं। दुनिया बनाने वाला कोई तो होगा विचार आता है मगर आगे नहीं समझते या समझने की कोशिश करते। ईश्वर है और हर जगह है हमारे सामने है हम या देख पाते नहीं या पहचानते नहीं क्योंकि जैसा हमने सुना पढ़ा उस जैसा नहीं है जो सामने है। आपके सामने जो भी हो अगर आप अपनी आंखें बंद रखोगे तो दिखाई कैसे देगा। आपको दो आंखों का पता है तीसरी आंख भी होती है नहीं जानते , जानते हैं तो शिवजी की तीसरी आंख की बात। आपने देखा आंख पर पट्टी बांध कोई लिखा हुआ पढ़ दिखलाता है टीवी पर वैज्ञानिक के सामने करतब दिखलाया और गिन्नी वर्ड रिकॉर्ड में दर्ज है।उसकी तरह हम भी तीसरी आंख खोल सकते हैं कोशिश अनुभव और लगन ज़रूरी है। दुनिया देखने को दो आंखें हैं मगर जिनकी नहीं होती उनको नज़र नहीं आने से दुनिया का होना झूठ नहीं हो सकता है। यही हम लोग करते हैं कि मुझे नज़र नहीं आया तो मैं कैसे यकीन करूं भगवान है। देखना चाहते हैं देखने का तरीका नहीं सीखते हैं। भगवान हर समय हर जगह है मगर जब हम चाहें जिस जगह हो उसी जगह दिखाई देना उसकी कोई मज़बूरी नहीं है। आपको देखने की इच्छा है भगवान की मर्ज़ी क्या है वही जानता है उसको नहीं दिखाई देना हर किसी को आसानी से। उसको देखने को तीसरी आंख चाहिए ज्ञान की भीतर की , आंख बंद करने से अपने भीतर नहीं झांकना जैसा कुछ लोग समझाते हैं भटकाते हैं दुनिया को देखने वाली आंखों से भगवान को देखना मुमकिन नहीं है। इधर उधर भागते फिरते हो मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे क्या ऊपर वाला किसी की कैद में रहेगा , नहीं कभी नहीं। उन स्थानों पर उसकी चर्चा हो सकती है आरती पूजा इबादत की जा सकती है उसका होना लाज़मी नहीं है। आप इस समय कहां है क्या कहीं और कोई आपकी चर्चा कर रहा नहीं हो सकता है , लेकिन आप उस जगह मौजूद नहीं हैं।
समस्या और भी है अगर आपको खबर हो आपके साथ साथ कोई है जो आपकी हर बात सुन रहा है हर अच्छा बुरा काम करते देख रहा है तो आप बेचैन हो जाओगे घबराओगे कुछ भी नहीं कर पाओगे। जबकि सोचो अगर आप कुछ भी अनुचित नहीं कर रहे तो किस बात की चिंता कैसा डर क्यों घबराना। कुछ इसी कारण हम तीसरी आंख खोलना नहीं चाहते और सोचते हैं कोई नहीं देखता जनता समझता हम कुछ भी करते हैं। हमने अपनी मर्ज़ी से सुविधा से अपनी असली आंख बंद की हुई है। जीवन भर कितनी कितनी जगह जाते हैं भगवान देवी देवता अदि के दर्शन करने को , दिखाई नहीं दिया ऊपर वाला फिर भी दिल को झूठी तसल्ली देते हैं दर्शन कर आये हैं। सोचा है कभी भगवान से मिलते बात करते गिला शिकवा करते रूठते मनाते। पिता संतान का नाता तभी तो होता कोई औपचारिकता नहीं। पर घर आते बच्चे गलती की है पिता से नज़र नहीं मिलाना चाहते तो चुपके से दबे पांव अंदर आते हैं। चैन की सांस लेते हैं बच गये पिता को पता नहीं चला। पिता को जाकर बताते भूल हुई है शायद सज़ा मिलती या माफ़ी या कोई सीख मिलती , मगर हम बचने की सोच कर राज़ी हैं। कोई किसी की बंद की हुई आंखों को खोल नहीं सकता है। साधु संत भी आपको कह सकते हैं अपनी मन की आंखें खोल , खोलनी आपको खुद ही हैं। कोई और आपकी तीसरी आंख खोलने में मदद नहीं कर सकता भगवान भी विवश नहीं करता मुझे देखो आंखें खोलकर। जिसे चाहत है खुद खोलता है भीतरी आंख को ईश्वर को देखने को जब मर्ज़ी।
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