अप्रैल 29, 2019

खुश रहना ज़रूरी है क्या ( जीवन सफर ) डॉ लोक सेतिया

    खुश रहना ज़रूरी है क्या ( जीवन सफर ) डॉ लोक सेतिया 

    68 साल जिया जी लिया हर साल नव वर्ष पर जन्म दिन पर समय समय पर चिंतन करता रहा।  कितनी बार कुछ नियम तय किये भविष्य में क्या करना क्या नहीं करना। डायरी पर लिखे रहे अमल लाना संभव नहीं था। खुश रहना सीखा नहीं आता भी नहीं फिर भी कभी कभी सोचता रहा हर हाल में खुश रहना है। खुश रहना अच्छी बात हो सकती है मगर आज समझना चाहता हूं खुश रहना कोई ज़रूरी तो नहीं है। कल मुझे पता है सभी लोग जन्म दिन पर यही शुभकामनाएं देना चाहेंगे खुश रहना। खुश रहना शायद मेरे बस की बात नहीं है मुझे खुश कैसे रहते ये भी समझ नहीं आया। नाचना झूमना गाना मनोरंजन करना मिलना जुलना
सैर सपाटे करना मनपसंद खाना खाना ये सब मुझे लगता नहीं मन के भीतर कोई वास्तविक ख़ुशी महसूस होने देते हैं। औरों को खुश दिखाई देते हैं अपने मन में उदासी रहती है। उदास रहना खामोश रहना कितना सुकून मिलता है भीड़ से अलग बस खुद अपने आप से बातें करना। तनहाई से घबराता था कभी अब समझ आया तनहाई कितनी अच्छी थी अब तनहाई मिलती नहीं लाख कोशिश करने पर भी। कुछ बातें अच्छी लगती हैं लिखना जो मन चाहे बिना इसकी परवाह किये कोई पढ़ता है तो क्या नहीं पढ़ता तो क्यों और पढ़ कर जाने क्या सोचेगा कोई छपने को लिखना नहीं लिखने को लिखना है अपने आप से मिलना खुद को समझना।

खुश रहना खराब बात तो नहीं मगर खुश रहने को ख़ुशी साथ होनी चाहिए। जब दुनिया भर की परेशानियां खुद से ज़्यादा समाज की आस पास की देश की दुर्दशा की पल पल दिखाई देती हैं तो लगता है ख़ुशी कोई गुनाह है। देश जल रहा हो हम कोई नीरो हैं जो चैन की बंसी बजाएं। खुश हैं शायद कुछ लोग धन दौलत सत्ता शोहरत ताकत सफलता पाकर। मैंने कभी ये सब चाहा ही नहीं जो चाहा मिलना क्या कहीं नज़र नहीं आया है भी वास्तव में कि बस इक कल्पना है। इक घर जिसके दरवाज़ा खुला रहे कोई आना चाहता है चला आये जिस घर में अपने बेगाने की कोई बात नहीं हो। इक गांव या शहर जिस में अपनापन हो प्यार हो लगाव हो किसी को किसी से कोई शिकवा शिकायत नहीं हो। बंधन हो प्यार का मुहब्बत का कोई रिश्तों की दिवार नहीं हो जिस की ऊंचाई आंगन में धूप की रौशनी की किरणों को आने से रोकती हो। सब अच्छे हैं कोई भी खराब नहीं है मगर सब को बाकी लोग भी अच्छे लगते हों जैसे भी हैं ठीक हैं। माना बहुत कुछ है जो आस पास देश समाज में अखरता है चिंतित करता है परेशान करता है मगर क्या मिलकर बदलना संभव नहीं है। मैं भी आप भी अपने अपने हिस्से की बात करूं बाकी लोग भी अपना अपना कर्तव्य निभाने का काम करें।

सबसे बड़ा झगड़ा अहंकार का है किस बात की अकड़ है कोई नहीं जानता बस मुझसे भला कोई भी नहीं। समझदार जानकर काबिल मुझसे बेहतर नहीं कोई भी। लाईलाज रोग लगा लिया है जो खुश होने देता है न किसी को ख़ुशी देने देता है। जाने कैसे लोग हैं जो जलती हुई रेत के रेगिस्तान को पानी का दरिया समझते हैं और मृगतृष्णा में दौड़ते दौड़ते प्यासे मरने की राह पे हैं। हमें तो रेंगने की भी इजाज़त नहीं मिलती वर्ना किसी शायर की कही बात है जिधर जाते कुछ फूल खिलाते जाते। ज़िंदगी को सालों से नापना व्यर्थ है जीवन की सार्थकता को पैमाना बनाकर समझना होगा क्या हासिल है। ये सोच कर पता चलता है जाना बहुत दूर है समय का पता नहीं और अभी सफर की शुरुआत करनी है। ठहरी हुई है ज़िंदगी उसी जगह पर कब से। संकल्प की बात दोहरानी है कल जन्म दिन से इक नई शुरुआत जीने की करना चाहता हूं जो सार्थक हो। इतनी सी आरज़ू बाकी है। 
 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें