मार्च 29, 2019

मौत के पास आ गये ज़िंदगी की तलाश में ( देश की वास्तविकता ) डॉ लोक सेतिया

   मौत के पास आ गये ज़िंदगी की तलाश में ( देश की वास्तविकता ) 

                                            डॉ लोक सेतिया 

      शेरो - शायरी की ज़ुबान में नहीं साफ बात करते हैं। दुष्यंत कुमार को जो लगता था मुझे भी लगता है। यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है। संविधान में जिन विभागों की स्थापना न्याय देने और सुरक्षा देने को की थी उनके करीब जाने से पता चलता है कि इन दरख्तों के पत्ते छांव नहीं देते आग बरसाते हैं। जाने ये कैसी व्यवस्था है जिसको खुद सुधारने की ज़रूरत हैं मगर उसका मानना है कि उसको छोड़ बाकी सब बिगड़े हुए हैं और इनका काम सबको ठीक करना है। इस से अधिक विडंबना की बात क्या होगी कि इनकी शिकायत भी इन्हीं से करनी होती है। मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है क्या मेरे हक में फैसला देगा। मुझे लोग कहते हैं आप चुप चाप देखते रहो देश की व्यवस्था की बदहाली को कुछ मत बोलो , जिनकी समस्या है वही जाने। मगर कोई भी चिंतनशील शिक्षित व्यक्ति अगर देश और समाज को सच बताने का कर्तव्य नहीं निभाता और कायरता के कारण खामोश रहता है तो केवल कागज़ काले करने से लेखक नहीं बन जाता। हमारा फ़र्ज़ है सही और गलत को समझना और समाज को आईना दिखाना। 

                विभाग कोई भी हो और नीचे से ऊपर तक कर्मचारी नागरिक की समस्या समझने उसका समाधान करने की नहीं बल्कि किसी बहाने कोई नियम का सहारा लेकर अड़चन या बाधा उतपन्न करने की कोशिश करते हैं। बाबू की कुर्सी पर बैठते ही उनके भीतर का इंसान इंसानियत शराफत छोड़ कुटिलता अपनाने लगता है , नहीं करने के सौ तरीके आते हैं जिस कार्य को करने से कोई अनुचित बात नहीं होती है। शायद इक आपराधिक आदत बन गई है किसी की पहचान सिफारिश से काम करने की अन्यथा क्यों कोई जोखिम उठाया जाये। अभी तक सरकारी कर्मचारी खुद को शासक मानते हैं और उनका विचार है आम नागरिक को कोई भी अधिकार या सेवा तो क्या बुनियादी सुविधा देना भी ज़रूरी नहीं मगर जनता को कानून की लाठी से हांकना ज़रूरी है। हर आम नागरिक इनकी नज़र में गुनहगार से कम नहीं और हमारा अपराध क्या है न हम जानते हैं न उनको पता है। बस उनको अवसर की तलाश रहती है हम लोगों को मुजरिम बनाकर कटघरे में खड़ा करने की। काश पढ़ लिख कर नियम कानून को समझकर उनको पता चलता कि संविधान आपको भी कुछ फ़र्ज़ कोई कर्तव्य निभाने को बताता है और जो जो नियम बाकी जनता के लिए बने हैं खुद आपको हर अधिकारी को कर्मचारी को उन पर खुद भी चलना है। मगर इनकी मानसिकता बनी हुई है जो हम समझते हैं वही सच है और खुद न्यायपूर्ण ढंग नहीं अपनाने के बावजूद न्यायधीश बने बैठे हैं। 

        बड़े बड़े अपराधी गुनहगार नहीं इनकी तलवार का शिकार आमजन होते हैं। नागरिक के लिए सीधी राह चलना दुश्वार करने के बाद टेड़ी राह चलने का आरोप लगाना आसान है , रास्ता बनाना उनको ज़रूरी नहीं लगता है। जब भी कोई अधिकारी नियुक्त होता है अपनी सोच से मनमानी करते नहीं विचार करता कि क्या जैसा उसको लगता है होना चाहिए उसका आधार बना हुआ है , नहीं बुनियाद बनाने की बात छोड़ इमारत खड़ी करने का काम जल्दी से करना है क्योंकि मकसद वास्तविक कार्य नहीं कोई और उद्देश्य हासिल करना है। किस के आदेश पर किस के इशारे पर क्या करना है सोचते नहीं हैं।  क्यंकि सत्ताधारी नेताओं का फरमान और उच्च अधिकारी का आदेश बिना औचित्य समझे मानना ही है। सभ्य नागरिक से तू तड़ाक से बात करने वाले तब उचित अनुचित की सोचते नहीं और जैसे आपका आदेश हज़ूर कहते हैं। ये कैसा विधान है जिस में ख़ास लोगों वीवीआईपी लोगों को अलिखित अधिकार मिले हुए हैं। उनको जाना है हर रास्ता उन्हीं का है बाकी लोग बचकर किनारे खड़े रहें , उनकी सुविधा को हम सबको परेशानी झेलनी ज़रूरी है। अभी देश की बड़ी अदालत ने भी कहा मगर सुनाई उनको नहीं दिया कि शांतिपूर्वक विरोध देश की व्यवस्था का सेफ्टी वाल्व की तरह है इसको बंद नहीं किया जा सकता। मगर अभी भी कोई अधिकारी को हालात की सच्चाई बताता है तो उसको खामोश करवाने को ढंग अपनाते हैं। जिस को परेशानी उसी को नोटिस भेजकर अपने दफ्तर बुलाना खुद न्यायधीश बनकर सुनवाई करने का नतीजा बार बार देखता रहा हूं। केवल खानापूरी करनी है समस्या समझनी नहीं दूर करना तो बहुत दूर की बात है।

                        सत्ता मिलते ही सत्ताधारी दल के पास दौलत का अंबार मिलने लगता है इस में कोई राज़ की बात नहीं है। कुर्सी पर बैठते ही गरीबी भूख बुनियादी सुविधाओं की कमी शिक्षा स्वास्थ्य की दुर्दशा से अधिक चिंता अपने नाम शोहरत इश्तिहार छपवाने की होने लगती है। धन की कमी आम जनता की पीने का पानी और दो वक़्त रोटी उपलब्ध करवाने को रहती है सरकार अधिकारी हर दिन सभाओं की सजावट पर ही मनचाहा खर्च करते हैं देश सेवा के नाम पर। चुनाव जीतने को खैरात बांटने की बात बेशर्मी से सभी दल करते हैं। देश की वास्तविक मालिक जनता को अधिकार कभी नहीं देने वाले खैरात देकर भिखारी बनाने की बात करते हैं। सत्ता पाना सबसे महान कार्य समझा जाना देश की राजनीति का घिनौना सच है। यहां अच्छा सच्चा कोई भी नहीं है मगर हम लोग भी दोषी हैं जो इस या उस दल की बात करते हैं। जबकि इनकी वास्तविकता जानते हैं और अगर देश को वास्तविक लोकतंत्र हासिल करना है तो इनको नकार कर खुद अपने बीच से अच्छे लोगों को खड़ा करना और जितवाना होगा। संविधान किसी दलीय लोकतंत्र की कोई बात नहीं करता है। जब तमाम राजनैतिक दल किसी लुटेरे गिरोह की तरह काम करने लगे हैं तो विकल्प देश की जनता को ही तलाशना होगा। आज़ादी कुछ लोगों की सत्ता पाने की हवस का नाम नहीं है। दवा के नाम पर हमें ज़हर नफरत का पिलाने वाले कभी देश समाज की भलाई नहीं कर सकते हैं। 

 

        

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