मैं शहंशाह ए आलम हूं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
शहंशाह कहने लगे मेरे दिल की बात आप सभी जानते ही हैं हमेशा से। ज़ुबान फिसल गई थी जब खुद को पहला सेवक और बाद में चौकीदार घोषित कर दिया। कहने से कोई कुछ बन नहीं जाता है मन की बात कोई नहीं समझता मन की बात मन में रहती है लबों पर आती नहीं है। अब सोचा कि अभी नहीं तो कभी नहीं और दिल की घबराहट को काबू कर सत्ता की देवी सुंदरता की मिसाल कुर्सी को जन्म जन्म तक बंधन में बांधने की बात कह दी है। तुम बिन जीवन कैसा जीवन। अभी किसी नेता ने ब्यान दिया है इस बार मुझे वरमाला पहनाई तो फिर देश में कोई चुनाव नहीं होगा। अच्छा लगा सुनकर कोई मेरे दिल की बात बिना कहे समझता है। आप मुझे गलत नहीं समझना मुझे कोई लालच कोई मोह सत्ता का नहीं है मगर मेरी बात आप सब जानते हैं मुझसे अच्छा कोई न कभी हुआ न कोई कभी हो सकता है कभी भी। मगर इस देश की भोली जनता को कोई भी बहला सकता है कमसिन गोरी की तरह और लूट सकता है। उनकी लूट लूट होती है मैं जो भी करूं मेरी मर्ज़ी मेरा अधिकार और देशभक्ति जनता की भलाई है। अब बार बार ये रिस्क उठाना उचित नहीं है इसलिए जैसे आपत्काल में संविधान को बदला संसद का कार्यकाल बढ़ा दिया था उसी तरह इस संसद का कार्यकाल अनंतकाल तक बढ़ाने की ज़रूरत है। कितने चुनाव हुए मगर बदला क्या केवल नाम बदलते रहे सांपनाथ नागनाथ। फिर इतना समय इतना धन और साधन खर्च करना किस काम का।
संविधान बना क्या था उसके बनाने का उद्देश्य क्या था कोई सोचता नहीं समझता नहीं। जैसे गीता रामायण पढ़ने को नहीं शीश झुकाने को रह गये हैं संविधान सत्ता पाने के बाद शपथ उठाकर भूल जाने को रह गया है। सत्ता पाने के बाद सब संविधान को दरकिनार कर मनमानी करते हैं। ये आडंबर बंद होना चाहिए। जब हर दल और नेता चुनाव जीतने के बाद खुद को जनता का सेवक समझता नहीं और शासक बनकर मालिक की तरह आदेश देता है फिर बेकार दिखावे के देशसेवा के दावे करने का मतलब क्या है। जब नाचन लागी तो घूंघट काहे , बस अब सेवक चौकीदार का तमगा उतार जो है असली चेहरा सामने दिखाना है। बस बहुत खेली होली देश की जनता और देश की व्यवस्था संग और संविधान की पालना की झूठी रट लगाना। हम तो आज़ादी से पहले से जानते हैं इस देश को लोकशाही नहीं राजाओं की गुलामी ही मिलनी उचित है। विदेशी शासक या देश के काले अंग्रेज़ बात एक जैसी है। चार साल कितने चिंतामुक्त रहे हैं हम और कब कुछ महीने बाकी रह गये सत्ता पर रहने को पलक झपकते समय बीत गया। बार बार जीत हार का डर कब तक सहना है कठोर निर्णय लेना पड़ता है। अगर होली पर नहीं तो दस दिन बाद पहली अप्रैल पर सही। दस दिन हैं विचार करने को चुनावी खेल को रोकने को बहाने बहुत हैं। काठ की हांडी बार बार चढ़ती नहीं है और लोग झूठे वादों को समझने लगे हैं। अन्य सभी बातों को छोड़ इक ज़रूरी ऐलान करना है , होली पार अपनी गलतियों की भूल की माफ़ी मांगने की परंपरा रही है। जिन पहले सत्ताधारी नेताओं को भला बुरा कहने की गलती करते रहे उनकी आत्माओं से माफ़ी मांगनी है उनको बताना है मेरे मन में उनके लिए गांधी जी की ही तरह से आदर है। वास्तविकता भी यही है आपको भी समझना होगा मेरी राह इंदिरा गांधी की राह से अलग कदापि नहीं है। उनकी जीवनी से बहुत सीखा है और सीखना भी बाक़ी है। कोई नहीं जानता आज जो व्याख्यान सुना क्या उसे होली की मस्ती समझना चाहिए या कोई खतरा भविष्य में देश पर मंडरा रहा है।
कल शायद कहने वाला भी भूल जाएगा नशे के आलम में मदहोशी में जो कहा उसका अर्थ और सुनने वाले भी कोई सपना देखा हो यही सोच खामोश रहना उचित समझेंगे।
जी अति सुंदर
जवाब देंहटाएंअबकी बार शहंशाह की सरकार..👌👍 बढ़िया लेख
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