क्या शोध आयुर्वेदिक को लेकर ( असली-नकली ) डॉ लोक सेतिया
दावा करते हैं हमने कई साल शोध किया और बर्तन धोने का आयुर्वेदिक साबुन बनाया। दंतमंजन बनाया टूथपेस्ट बनाई फेसवाश बनाया महिअलों को मरहम दी बनाकर चेहरे को खूबसूरत बनाने की। बिस्कुट तेल घी आटा से लेकर सब असली हमारा है और हमने किसानों से लेकर हर किसी तक को बहुत कुछ दिया है। टीवी चैनल को विज्ञापन देकर मालामाल किया है और मुनाफे का कारोबार नहीं करते फिर भी कितनी कमाई की है कोई हिसाब नहीं है। बाकी विषय की बात छोड़ देते हैं अभी एक ही विषय की चर्चा करते हैं। एक वही नहीं और भी तथाकथित गुरु जी है आर्ट ऑफ़ लिविंग वाले और कितनी कंपनियां नई पुरानी दावा करती हैं आयुर्वेद को बढ़ावा लाने का। आयुर्वेद जैसा माना जाता है कुदरत की दी हुई स्वस्थ रहने की जीने की विधि है और उपचार करने का कुदरती तरीका है।
अपने शोध किया कहते हैं तो पहली बात कोई भी आयुर्वेदिक या किसी भी पद्धति में शोध करने की बात करेगा तो किस बात को लेकर। यकीनन रोग के उपचार को लेकर पुरानी दवा को और बेहतर बनाने को लेकर या कोई वास्तविक शोध किसी गंभीर रोग का ईलाज खोजने को लेकर। शोध कोई पहाड़ों पर घूमते हुए वीडियो बनाने से हाथ में हरी जड़ी बूटी पकड़ने से नहीं किया जाता है। जो विदेशी कंपनी भी कई साल से आयुर्वेद के नाम पर सामान बेचती है उसने भी भारत में पेटेंट नियम नहीं लागू होने का लाभ उठाया है और आयुर्वेद की किताबों से नुस्खे लेकर उपयोग किया है अपना कारोबार करने को। आयुर्वेद को इन सभी ने कोई नया योगदान नहीं दिया है और हर किसी ने आयुर्वेदिक किताब से जानकारी लेकर उत्पाद बनाकर केवल कमाई की है व्यौपार में मुनाफा बनाया है। बदले में आयुर्वेद को दिया कुछ भी नहीं बल्कि उसका भरोसा कम किया है और जनता को भटकाने का काम किया है क्योंकि किसी भी रोग का उपचार पहले शिक्षित वैद द्वारा जांच और निदान करने के बाद उसके बताये नुस्खे से ईलाज आदि से संभव है। मगर हर किसी ने बिना कोई चिकित्स्क की सलाह नीम हकीम बनकर उपचार की बात करने का अमानवीय अपराध किया है। खेद की बात है कि सरकार आयुर्वेद को बढ़ावा देने को बहुत कार्य करने की बात करती कहती है मगर आयुर्वेदिक उपचार इस तरह से कोई देश भर में करता है तो ऐसे लोगों पर कोई रोक नहीं लगाती है। गरीब की जोरू सबकी भाभी की मिसाल की तरह हर कोई उसके साथ छेड़खानी करता है। मगर इस का दोष आयुर्वेद की शिक्षा हासिल करने वालों और आयुर्वेदिक शिक्षा देने वालों पर भी है जो केवल दो हज़ार साल पुराने बताये ईलाज से आगे नया और आधुनिक समय के अनुकूल कोई शोध नया करने की बात सोचना ही नहीं चाहते हैं। बेशक किसी भी पद्धति को आगे बढ़ने को सरकार का सहयोग ज़रूरी होता है और जब एलोपैथी का बजट नब्बे फीसदी से भी अधिक और अन्य सभी आयुर्वेदिक यूनानी होमियोपैथी सिद्ध का दस फीसदी से कम होगा तो आयुर्वेद का ज़िंदा रहना भी कितना कठिन रहा है हम जानते हैं। आयुर्वेद के अपने बनकर लूटने वाले तमाम लोग हैं मगर वास्तव में आयुर्वेद का सगा कोई नहीं है। हालत ऐसी है जैसे अपनी ही संतान के साथ सौतेले जैसा बर्ताव किया जाता रहा है। काश आज़ादी के बाद आयुर्वेद पर शोध किया जाता और इसको बढ़ावा देकर विकसित किया जाता तो मुमकिन है आजकल जितने नये रोग उतपन्न हुए हैं नहीं हुए होते क्योंकि आयुर्वेदिक दवाओं से कोई रोग ठीक हो सकता है किसी दूसरे रोग को पैदा नहीं करता है आयुर्वेदिक उपचार।
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