दिसंबर 07, 2018

भीड़ और दंगों में जीने का कर ( आधुनिक मांग ) डॉ लोक सेतिया

  भीड़ और दंगों में जीने का कर ( आधुनिक मांग ) डॉ लोक सेतिया 

     जान है तो जहान है , आज़ादी है मगर ज़िंदगी की सुरक्षा आपकी अपनी ज़िम्मेदारी है। ओह माय गॉड फिल्म की तरह से बीमा वाले भी भीड़ से बचाने की सुरक्षा नहीं देते हैं। अक्षय कुमार समझाते हैं बीमा करवाते तो पछताते नहीं शायद उनके पास कोई पॉलिसी इस बारे भी हो। सरकार फसल बीमा से स्वस्थ्य बीमा तक देने की योजना बनाती है अब इस समस्या का भी समाधान ढूंढना चाहिए। जीना मरना ऊपर वाले की मर्ज़ी पर है हम सब तो उसके हाथ की कठपुतलियां हैं कब कौन कैसे उठेगा कोई नहीं जानता , हाहाहाहा। आनंद फिल्म में राजेश खन्ना जी अमिताभ बच्चन जी को बाकायदा रिकॉर्डिंग कर दे जाते हैं। बाबूमोशाय। 
 
     पहले गली में सड़क पर शोर सुनाई देता था तो लोग किवाड़ खोलकर बाहर निकल खड़े होकर देखा करते थे। बरात निकल रही हो या किसी राजनेता का जुलूस या कोई धार्मिक सुबह की फेरी या शाम की शोभा यात्रा निकलती हो। अब तो हर धर्म के त्यौहार तक इक डर के साये में गुज़रते हैं और शांति से बीत जाने पर राहत महसूस होती है। उल्लास नाम की बात अब गायब हो चुकी है।

           सरकार को पैसे की बहुत ज़रूरत होती है और जनता को बिना कर चुकाए कोई सुविधा नहीं हासिल हो सकती है। मगर संविधान जीने का अधिकार देता है ऐसा समझा जाता है इसलिए हर किसी को जितना भी सरकार उचित समझती हो उतना कर वसूल करने के बाद भीड़ और दंगों में जीने का उपाय अवश्य जिस भी तरह से संभव हो उपलब्ध करवाना चाहिए। अब इस में कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए राज्य कोई भी हो धर्म कोई भी हो काम कोई भी करता हो या बेरोज़गार भी हो। ज़िंदगी की कीमत बराबर होनी चाहिए आम ख़ास वीआईपी सब इक समान हैं। शिक्षा स्वास्थ्य रोटी घर की छत और न्याय सब की बात बाद में पहले जीने का अवसर मिलना ज़रूरी है। जिनको भीड़ बनकर दंगे करने की आदत हो या जो भी ये सब करने को बढ़ावा देते हैं उनको शराफत का सबक कोई और नहीं पढ़ा सकता है और उनको देश कानून संविधान की कोई परवाह नहीं होती है। सरकार चलाने वाले राजनेताओं और विपक्ष के दलों को अगर भीड़ जमा करनी है तो भीड़ के अपकर्मों का भी फल भुगतना चाहिए। इसलिए जिस किसी ने भीड़ जमा की और उस भीड़ को दंगे करने से नहीं रोका उनको सार्वजनिक जीवन से बाहर करना ही उपाय है। उन पर रोक लगाना ज़रूरी है और सामूहिक सज़ा मिलनी चाहिए। ऐसी हर घटना साबित करती है कि सरकार पुलिस न्यायव्यवस्था नाम की कोई चीज़ बाकी नहीं रही है। ऐसे लोग खुद अपराधी हैं जनता को सुरक्षा की जगह दहशत देने लगे हैं।  
 
            तथाकथित विशिष्ट कहलाये जाने वाले मुट्ठी भर आपराधिक तत्वों को  जिनको इंसान का लहू बहाने में लुत्फ़ आता है को शराफत का पाठ पढ़ाना मुमकिन नहीं है । इनका कोई नाम नहीं है मगर तमाम संगठन और संस्थाएं जो भीड़ जमा करती हैं उन पर रोक लगाने से लेकर उनके सभी मौलिक अधिकार छीन लिए जाने चाहिएं और उन सभी को कोई काला पानी जैसी जगह भेजा जाना चाहिए ऐसी घटना होते ही । इंसानों की बस्तियों में कोई हैवान रहे इसकी इजाज़त नहीं दी जा सकती है। देश का हर सभ्य नागरिक इसके लिए बाकायदा कर देने को राज़ी है। महानगरों में डॉन हुआ करते थे या होंगे जो हफ्ता महीना वसूली कर लोगों को जान की खैर मनाने और चैन से रहने का अधिकार देते हैं और कोई बहरी डॉन आंख उठाकर नहीं देख सकता है। ऐसा नहीं हो लोग सरकार को छोड़ ऐसे लोगों से अपनी सुरक्षा हासिल करने लग जाएं।  

 

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