वास्तविकता से नज़रें चुराना बंद करें अब ( आईने का सामना )
डॉ लोक सेतिया
ये चाहत अपनी जगह कि सब खुद को अच्छा कहलाना दिखाना पसंद करते हैं। लेकिन अपनी खामियों को दूर करने की जगह अगर उन पर कोई आवरण डालकर ढकते हैं तो वास्तविकता से नज़रें चुराते हैं। हमने अपनी वास्तविकता को स्वीकार नहीं किया और जब तक स्वीकार करते नहीं उसको सुधार सकते भी नहीं हैं। जब किसी दुल्हन के चेहरे पर दाग़ हों तो उनको मेकअप भी नहीं छुपा सकता और घूंघट भी अधिक समय तक लाज नहीं रख सकता है। ख़िज़ाब लगाने से बाल रंगने से भी आपकी असलियत रहती वही है। शायद अब अवसर है कि हम दोष लगाने आरोप लगाने को छोड़ इस बात पर चिंतन करें कि देश के पास बहुत कुछ है संसाधन हैं और तमाम तरह का भंडार है मगर फिर भी आज़ादी के बाद जैसा होना चाहिए था सभी को एक समान बुनियादी सुविधाएं मिलने का हक जो संभव था मगर हुआ नहीं है। खेद की बात है अभी तक हमारे राजनेताओं में इतना साहस भी नहीं रहा कि झूठी शान बघारने की जगह असलियत को साफ मान सकते कि जैसा जो किया जाना चाहिए था हुआ नहीं और इस व्यवस्था को बदलना होगा। इसके उल्ट सत्ता मिलते ही उसी बनी बनाई राह पर हर सत्ताधारी चलता रहा है। नाज़ करने की बात कहने से जो नाज़ करने नहीं चिंतन करने और शर्मसार होने की बात है उनको ठीक करना था लेकिन जब तक आप स्वीकार ही नहीं करते कि क्या क्या ठीक नहीं है उसको सुधरने बदलने की कोशिश कैसे होगी। कारण बहुत हैं और आप बहाने भी जितने चाहो बना सकते हैं मगर जो सच है उसको देखना तो होगा समझना तो होगा और बदलना ज़रूरी है।
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा गीत गाकर बात नहीं बन सकती है। इक संकल्प लेना होगा कि ऐसा देश बनाना है और उसके लिए जिन खामियों को दूर करने की ज़रूरत है उनको दूर करने को साहस करना होगा। अभी तक सत्ता रहने जाने का भय सरकार को नया कदम उठाने से या फिर जिनके कारण गलत नतीजे मिलते रहे उनसे कदम पीछे हटाने से रोकती रही है। जब राजनेता और दल खुद सत्ता को ही उद्देश्य समझ लेते हैं तो देश पीछे रह जाता है। जब तक काबलियत को ईमानदारी को महत्व नहीं दिया जाएगा और वोट या रिश्वत की खातिर नाकाबिल लोगों को नियुक्त किया जाता रहेगा अथवा चुना या मनोनीत किया जाता रहेगा तब तक कुछ भी बेहतर और अच्छा होना मुमकिन नहीं है। जिस देश में हर कोई अपने स्वार्थ की चिंता करता है और अपने ज़रूरत किसी भी तरह से पूरी करने को उचित मानता है उस देश को कोई भी महान तो क्या स्वाभिमानी भी नहीं बना सकता है।
क्या कोई नाज़ कर सकता है कि आज भी आधी आबादी भूखी नंगी है। क्या कोई नाज़ कर सकता है कि आज संसद और विधंसभाओं में गुंडे बदमाश और सत्ता और धन के भूखे लोग बैठे हैं और देश प्यार और जनता की सेवा का दावा करते हैं। क्या कोई नाज़ कर सकता है कि हम धार्मिक लोग हैं और ईश्वर को मानते हैं मगर हम फिर भी धर्म के नाम पर नफरत की बात करते हैं धर्म क्या ऐसा सिखलाता है। अगर नहीं तो फिर हम धर्म को नहीं समझते और धर्म को आड़ बनाकर अधर्म के मार्ग पर चलते हैं। देश की समाज की असली समस्याओं को छोड़ हम मंदिर मस्जिद की बहस में उलझे देश को भूल ही नहीं जाते बल्कि देश को विभाजित करने लगते हैं। खेद की बात ये है कि राजनीति में लोग देश की सेवा की खातिर नहीं आते और उसे इक कारोबार समझ कर आते हैं। यही बात और लोगों पर भी लागू होती है। स्कूल कॉलेज अस्पताल शिक्षा और स्वास्थ्य से अधिक जब पैसा कमाने के साधन बन जाते हैं और कोई भी कारोबार जब लूट का साधन बन जाता है और मुनाफाखोरी की आदत बन जाती है तो लोग अमीर नहीं बनते अपने मार्ग से भटके हुए शराफत का लिबास पहने डाकू लुटेरे बन जाते हैं मगर इस पर कोई नाज़ नहीं कर सकता है। जिस देश में नैतिकता की हालत ऐसी हो गई है उसको खुद पर शर्म आएगी या नाज़ कर सकेगा। आज अवसर है पुरानी गलतियों को सुधरने पर विचार किया जाये नव वर्ष पर ये सार्थक कार्य हो सकता है।
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