राधा मीरा और सीता ( वार्तालाप ) डॉ लोक सेतिया
विधि ने तीनों को आमने सामने लाकर खड़ा कर दिया। गले मिल कर तीनों अपनी अपनी कहानी याद करने लगी। सीता जी बोलीं तुम दोनों को आज भी लोग प्यार की देवी मानते हैं पूजते हैं कोई लांछन लगाने की बात नहीं करता कभी। मैं आज भी समाज से इंसाफ की आस लिए तड़पती रहती हूं। तुम्हें आज भी कोई भला बुरा नहीं कहता कि जिस से सामाजिक संबंध नहीं था उसको चाहती रही। उसके नाम की रट लगाती रही मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई। तुम रास रचाती रही कान्हा संग नाची झूमी उसकी सखी बन उसकी बांसुरी भी सुनती रही और बंसी को छीनती भी रही छेड़खानी भी की। कभी खुद को कृष्ण कन्हैया की दासी नहीं समझा तुमने। मैंने अपने राम के लिए महल छोड़ा बनवास झेला कभी सुख से नहीं रही फिर भी मुझे अग्नि परीक्षा के बाद भी त्याग दिया वो भी बिना अपराध बताए हुए ही। मेरा अस्तित्व आज भी अपने खुद का कोई नहीं समझता है और जिसने मुझे छोड़ा आज तक उसी की राम की पत्नी होना ही मेरी नियति है। राधा तुमने दूरी का दुःख झेला मीरा तुमने ज़हर का प्याला पी लिया मगर मुझे पल पल जिस विष को लांछन को चुप चाप सहना पड़ा और अपनी संतान को जन्म देने को इक राजा की बेटी इक राजा की पत्नी को इक वाल्मीकि की कुटिया में रहना पड़ा उसे जीना नहीं क्षण क्षण मरना कह सकते हैं। किसी राजा के लिए पत्नी कोई मूरत है जब यज्ञ में ज़रूरत तब सोने की सीता बनाकर काम चला लिया जिस में जीवन नहीं था निर्जीव पुतला था। शासक आज भी जीवित लोगों से अधिक मोह धातु के पुतलों से रखते हैं , जनता सीता की तरह बेबस भटकती है और शासक मनमानी करते हुए भी महानता का दम भरते हैं। आज की नारी अभी भी मेरी व्यथा को नहीं समझती है तभी पति से अलग अपना अस्तित्व नहीं खोजती है उसे आज भी सीता जो उनकी तरह इक महिला थी आदर्श नहीं लगती है और आज भी राम के मंदिर उसकी आरती की बात करती हैं। जो मुझे नहीं मिला इतने बड़े कुल की बेटी बहु को इनको मिल कैसे सकेगा उसी राह पर चल कर। मगर जानती हूं आजकल की महिलाओं को सीता राम की पत्नी को पूजना है और कुछ भी हो कितने अन्याय अत्याचार सहने पड़ें साथ रहना है अस्तित्वविहीन होकर मगर साहस से अधिकार अथवा खुद को अपने भरोसे न्याय को लड़ना नहीं है। रावण आज भी मनमानी करते हैं सज़ा आज भी उसी नारी को मिलती है जिसके साथ छल किया रावण ने साधु बनकर। महिलाओं को अभी भी रावण की पहचान नहीं है। राधा और मीरा दोनों ने इक साथ कहा कि हमने समझ लिया था जिसे चाहती हैं उसे पाना ज़रूरी नहीं है और खुद को मिटाकर तो हर्गिज़ नहीं। कोई हमें छोड़ता इसकी नौबत नहीं आने दी हमने प्यार की भीख नहीं मांगी उससे। हम हम हैं किसी के नाम के बिना भी हम खुद अपने दम पर रही हैं , दुनिया समाज कभी नारी को आज़ादी नहीं देती न कभी देगी ही जिस दिन महिलाओं को इतनी सी बात समझ आ गई वो अपने नाम को किसी के भी नाम से जोड़ना नहीं चाहेंगी वो चाहे पिता हो पति हो या संतान हो। मुझे लगता है मेरी बहन उर्मिला का दर्द मुझसे भी अधिक है मगर किसी ने उसकी चर्चा तक नहीं की।
शायद बहुत लोग सोचेंगे कौन उर्मिला। आपको बताना चाहता हूं राजा जनक की ही
बेटी मिथिला की छोटी राजकुमारी सीता जी की छोटी बहन और लक्ष्मण की पत्नी
उर्मिला थी। जिनको उनकी कथा मालूम नहीं कुछ लोग समझते हैं सीता जी तो महल
को छोड़ बनवास में पति के साथ गई और शायद लक्ष्मण की पत्नी महल में सुख
पूर्वक रहती रही मगर ऐसा नहीं है। बड़ी बहन और पति दोनों ने उर्मिला को बनवास साथ जाने नहीं दिया और महल में सभी की सेवा करने का आदेश दिया और जब ससुर दशरथ की मृत्यु हुई तो वो अकेली थी मगर पिता के कहने पर भी मिथिला जाने को नहीं मानी। घर सभी का ध्यान रखने के साथ इक और भी समस्या थी उर्मिला की। लक्ष्मण ने वन में कुटिया बनाई भाई राम और माता सीता के लिए और खुद बाहर रखवाली को खड़ा रहा। जब नींद की देवी सामने आई तब नींद की देवी से लक्ष्मण ने वरदान मांगा
था भाई राम की सेवा और सुरक्षा को जागते रहने का और देवी ने बदले में 14
साल तक अपनी नींद किसी और को देने को कहा तो लक्ष्मण ने अपनी पत्नी को दे दी अपने हिस्से की नींद। उर्मिला को सोते रहने पड़ा। और इतना ही नहीं बनवास के बाद जब
राम का राजतिलक हुआ तब देवी के आदेश अनुसार लक्ष्मण की बारी थी अगले 14
साल सोते रहने की और उर्मिला की उसके बाद जागते रहने की। नवविवाहिता को पति
से अलग रहना और दोबारा मिलने पर भी उस से कोई संवाद तक नहीं कर पाना इससे
बड़ी सज़ा क्या हो सकती थी। रामायण लिखने वाले ने सब कथा अपने राम को ऊंचा
बड़ा और महान बनाने के अनुसार समझाई है और जब राम को भगवान बना दिया तो उसके
आचरण पर सवाल उठाने का कोई जतन भी नहीं कर सकता है।
आपको ऐसा रामराज्य पसंद हो सकता है जिस में पत्नी भाई सभी अपना सुख त्याग
करें और तब भी गुणगान शासक का हो। जो अपनी पत्नी तक को न्याय नहीं दे सकता
उसका न्याय कैसा होगा जिस में अपनी आलोचना ही निर्णय करने को विवश करती हो।
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