आत्मनिर्भर और आज़ाद बने देश ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
किस बात का गर्व है , अंतरिक्ष में चांद पर पहुंचने और अणु बंब बनाने पर। अपनी सुरक्षा को लड़ाकू विमान और साज़ो-सामान खुद नहीं बनाते विदेश से मंगवाते हैं उनकी शर्तों पर। अपना सामान उनकी शर्तों पर बेचना उनका उनकी शर्तों पर खरीदना , विदेशी निवेश उनके आर्थिक फायदे को ध्यान में रखकर स्वीकार करना। शीतल पेय और तमाम सामान्य उपयोग की चीज़ें विदेश से खरीदना आर्थिक गुलामी का ही दूसरा नाम है। किस स्मार्ट शहरों की बात करते हैं जो देखने में सुंदर भी हों भी अगर तो इंसानियत से खाली हों। क्या ये देश सभी का नहीं है , किसी महानगर में सब कुछ तो किसी गांव या छोटे शहर में सामन्य शिक्षा स्वास्थ्य सेवा तो क्या साफ पीने का पानी भी नहीं है। आज भी कितने लोग इसी से बिमार होते हैं , मगर हमारे तथाकथित महान लोग आर ओ बेचने को देश सेवा मानते हैं। इतनी ही चिंता थी तो जो पैसा सांसद बनकर मिलता था उसे किसी गांव में साफ पानी उपलब्ध कराने पर ही खर्च कर देते। आपसे ये भी नहीं हुआ कि जिन गांवों को गोद लिया उन्हीं को जाकर देख लेते। राज्य सभा की सदस्यता को तमगा समझने वाले देश को क्या दे सकते हैं। फोर लेन सिक्स लेन सड़कों से अधिक ज़रूरी है देश के हर गांव तक बुनियादी सुविधाओं को पहुंचाना। मगर ये किसी को ज़रूरी लगता ही नहीं। आपके शहर में सरकारी अस्पताल में जो जो उपकरण हैं सब विदेशी हैं और जब उनमें खराबी आती है तो उसको ठीक करवाने को बाहर से लोग आते हैं या जो पुर्ज़ा खराब हो बाहर से मंगाया जाता है। अंतरिक्ष में परशेपण करते हैं मगर एम आर आई , इको , सी टी स्कैन मशीन देश में नहीं बना सकते। हर दिन देश के पास डॉलर कम अधिक होने की चिंता और अपनी कीमत घटने का डर ये कैसा कारोबार है। भारत देश के पास अपने इतने संसाधन हैं कि उनका सही उपयोग किया जाये तो कोई कमी नहीं रहेगी। मगर हमारी मानसिकता विदेश को खुद से बेहतर समझने की और देश को लेकर हीनभावना की।बहुत देश हैं जो अपने नियम अपने देश की भलाई को सामने रखकर बनाते हैं। हम कब तक उन आदर्शों की बात करते रहेंगे जो देश हित के लिए सही नहीं है। कुछ थोड़ी सी बातें हैं जो कुछ लोगों को पसंद नहीं आएं मगर लागू करनी चाहिएं देश को सामने रखकर।
देश से शिक्षा पाकर विदेश में पैसा कमाने वालों को और अधिक लाभ देने की जगह उनसे उनकी आमदनी का कुछ हिस्सा समाज कल्याण पर खर्च करवाना चाहिए। जो बाहर जाकर बस जाते हैं अच्छा जीवन जीने को उनकी देशभक्ति तभी वास्तविक है अगर उनकी करोड़ों की आमदनी से कुछ वो देश के लोगों की बुनियादी ज़रूरतों पर खर्च किया करें कर्तव्य समझ कर उपकार मान कर नहीं। हम इतने स्वार्थी बन गए हैं कि खुद अपने देश समाज को कुछ देना चाहते नहीं , हमें विवश करना होगा नियम बनाकर कि देश में रहते भी और विदेश में जाकर भी इक सीमा से अधिक आमदनी होने पर खुद अपने ऐशो-आराम पर पैसा बर्बाद करने की जगह औरों के जीवन को सुधारने पर खर्च करना होगा। ये खेद की बात है कि हमारे देश के अर्थशास्त्री तक देश की भलाई नहीं विदेशी लोगों की भलाई की बात करते हैं। रहना पाना भारत से सब कुछ और नीतियां आई एम एफ या विश्व बैंक की लागू करना। स्वदेशी की रट लगाने से देश और जनता की भलाई नहीं होने वाली , स्वदेशी की अवधारणा को समझना और उसका पालन करना ज़रूरी है।
( बहुत बातें बाकी हैं , बाद में इसी पोस्ट पर विस्तार से लिखनी हैं )
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