जून 18, 2018

मेरे लेखक होने का अर्थ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

      मेरे लेखक होने का अर्थ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

 हम सभी देशभक्त होने का दावा करते हैं , और कुछ लोग तो औरों की देशभक्ति पर सवाल भी करते हैं तो कुछ लोग देशभक्त होने का प्रमाणपत्र भी बांटते हैं। कोई मान्य परिभाषा मिलती नहीं किसी शब्दकोश में , फिर भी थोड़ी चर्चा की जा सकती है। अगर आप अपने रिश्तों को तब भी बड़ा मानते हैं जब बात देश की हो तो आपकी देशभक्ति सच्ची नहीं है। सब से पहले हर नागरिक को देश और देश के संविधान और देश के कानून तथा देश के आदर को सब बातों से ऊपर रखना चाहिए। फिर जो भी देश हित के खिलाफ हो हम उसके साथ नहीं हो सकते। भाई दोस्त रिश्ते कोई संस्था कोई दल कोई नेता अभिनेता नायक या आप किसी भी संगठन के सदस्य हों , देश सब से पहले है। जो लोग अपने स्वार्थ साधने को इन सब को अनदेखा करते हैं और अपनी मांगें मनवाने को संविधान कानून को ताक पर रखते है व औरों के अधिकारों का हनन करते हैं , उनको देश से अधिक स्वार्थ महत्वपूर्ण लगते हैं तो उनकी देशभक्ति कैसी है। आप आम नागरिक हों या फिर सरकारी कर्मचारी अधिकारी , पुलिस या न्यायपालिका से जुड़े लोग , डॉक्टर शिक्षक अथवा लेखक या अख़बार टीवी से जुड़े लोग। अगर आपको अपना कर्तव्य देश के लिए पूरी ईमानदारी से निभाना नहीं आता और अपने लाभ को अधिक महत्व देकर झूठ बेईमानी ठगी और हेरा फेरी करते हैं , जो भी आपसे सम्पर्क रखता उसके साथ अनुचित करते हैं या जो उचित है और करना चाहिए करते नहीं हैं तो खुद को देशभक्त नहीं समझ सकते। विशेषकर जो भी पढ़ लिख कर कोई भी काम अपना करते हैं उनको विचार करना चाहिए कि हम अपने देश और समाज को क्या देते हैं , सभी को अपने हिस्से का योगदान देश की भलाई और देश को आगे ले जाने में देना चाहिए। मुझे ये सबक सरिता पत्रिका के कॉलम से मिला था 1974 में डॉक्टर बनने के बाद। तभी से मैं देश की समस्याओं और सरकार प्रशासन और विभागों की बदहाली को लेकर निर्भीकलिखता रहा हूं और लिखना भी चाहता हूं। मुझे इससे कोई आर्थिक मकसद नहीं पूरा करना , मुझे ऐसा करने से कोई नाम शोहरत नहीं मिलती है , अधिकतर परेशानियां मिलती हैं और बहुत लोग मुझसे नाराज़ भी रहते हैं। साफ और बेबाक सच बोलकर हर किसी को अपना विरोधी बना लिया है , इक ऐसी लड़ाई लड़ रहा हूं जिस में हारता रहता हूं हर बार। शायद हासिल कुछ भी नहीं होना है और बदलता भी नहीं कुछ भी मेरे चाहने से फिर भी खामोश रहना कठिन लगता है , सांस घुटती है। जीवन भर ऐसा काम करना जिस में आपको मुफलिसी के सिवा कुछ हासिल नहीं होना , सब लोग मानते हैं ऐसा काम नहीं करना चाहिए। मुझे लेकिन लगता है मेरा कर्तव्य है समाज की बात लिखना। लेखक होना इस देश में किसी अपराध जैसा है। तमाम लिखने वाले इस से बहुत कुछ हासिल करना चाहते हैं और अपनी चाहत पूरी करने को समय की धारा के साथ बहते हैं मगर मैं सदा धारा के विपरीत लहरों से टकराता और भंवर में जाने की मूर्खता करता आया हूं। मुझ से रात को दिन नहीं कहा जाता है न ही मैं इस तरफ या उस तरफ का होकर रहा हूं। चाटुकारिता नहीं सीखी और चुप रहकर भी वक़्त गुज़ारना नहीं आया मुझे। किसी योद्धा की तरह अपनी कलम से अकेला लड़ रहा हूं। यही जीवन का मकसद बन गया है। मुझे बिना समझे बिना मेरा लिखा पढ़े ही लोग मेरी आलोचना करते हैं कि मैं निराशा की ही बात लिखता हूं , जो मिला है वही तो देंगे , हम ग़मज़दा हैं लाएं कहां से ख़ुशी के गीत। देंगे वही जो पाएंगे इस ज़िंदगी से हम। गुरुदत्त की फिल्म की तरह है मेरा हाल भी। शायद मुझे कोई और राह बनाकर चलना चाहिए था मगर मेरे हाथ में कभी नहीं रहा फैसला अपनी राह खुद चुनने का और हमेशा हालात की आंधी मुझे अपने संग उड़ा कर ले जाती रही है। जो भी चाहा कभी नहीं मिला या सफल होने की काबलियत ही नहीं है मुझमें। ज़िंदगी के लंबे सफर में इतना आगे आकर वापसी का कोई विकल्प नहीं है न ही कोई और रास्ता ही है। कुछ नहीं पता कल क्या होगा शायद अंत का इंतज़ार जब मौत विराम लगा देगी और किसी को नहीं फुर्सत भी कि सोचे मैं कौन था क्या था किसी के सपने नहीं पूरे कर पाया और मेरा कोई सपना शायद था ही नहीं बस जैसे तैसे गुज़र बसर करने के सिवा और इक कल्पना में जीना कि कोई कभी मेरे लेखन की कुछ तो कीमत समझेगा। खाली हाथ आते हैं सब और खाली हाथ जाते भी हैं मगर जीवन में सार्थक किया क्या यही महत्व रखता है। मेरा प्रयास मेरा लेखन कितना सार्थक है मैं खुद तो नहीं तय कर सकता और लोग इसका मोल समझेंगे या नहीं मेरे लिए अनमोल है ये। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें