घर की डयोढ़ी के बाबाजी - यादें पुरानी - डॉ लोक सेतिया
इक ख़्वाब देखा , कोई घर की पहली मंज़िल से ऊंची ऊंची आवाज़ में कहता सुनाई दिया , कभी नहीं समझेंगे कि जो भी आया है उसको आने दो ऊपर , हम खुद अपने आप अच्छे बुरे की पहचान कर सकते हैं। कोई छोटे बच्चे नहीं हैं। कोई सवाल करे कि किसे विश्वास नहीं है , उनको आप पर नहीं है या फिर आपको अपने बड़े बूढ़ों पर भरोसा नहीं है कि वो आपकी भलाई की ही बात नहीं करते बल्कि अनुभवी भी हैं आपसे अधिक। आपकी निगरानी नहीं करते हैं निगेहबानी करते हैं आपकी सुरक्षा की चिंता आपको हो न हो उनको अपना कर्तव्य लगता है आपको हर कठिनाई से बचाना। आधुनिकता ने सब को खुद तक सिमित कर कितना अकेला और असहाय कर दिया है शायद हमने विचार ही नहीं किया कि अपनी आज़ादी की कितनी कीमत चुकाई है सब ने और आज हर कोई अकेला हो चला है। चलो मेरे साथ आज आपको समझाता हूं सामने दिखलाता हूं उन सब बातों का महत्व और मकसद।
बाबाजी हर समय घर के दरवाज़े पर जो कभी बंद नहीं रहता था किसी डर से वहीं बैठे रहते थे। हुक्का सामने रखा होता था जिसकी गुड़गुड़ाहट सुनाई देती थी। हर आगुन्तक का स्वागत करते थे बाबाजी , मुझे अभी भी याद है हम बच्चों तक को बाबाजी नाम के साथ जी जोड़कर बुलाते थे। जब कोई किसी को लोकजी बुलाएगा तो सामने वाले के मुंह से जीबाबाजी ही निकलता था। ये अब समझ आया कि जी कहने से बड़े लोग छोटे नहीं हो जाते उनको जी भी दुगना होकर मिलता है और वो दिल से आदर के साथ बुलाया जाता है। मैंने पहले भी लिखा है दादाजी मेरे आदर्श थे और हैं , उनका अपना एक प्रभाव था जो सब को उनके बड़े होने का लिहाज़ करने को खुद ही विवश कर देता था। ऊंची आवाज़ में बात कभी नहीं करते थे बाबाजी , मगर हर कोई घर में धीमे स्वर में बात करता था। किसी पर कोई बंधन नहीं रखते थे मगर जब भी कोई आता जाता तो पूछते थे कहां जा रहे हो , किधर से आये हो। जिसे आजकल दखल देना समझते हैं वो वास्तव में परवाह करना होता था।
घर में कोई जानवर नहीं घुस सकता था , बाबाजी की खूंडी तैयार रहती थी। कोई आता तो जानकर कि भूखा है उसे बिठाते और भीतर से बुलाते किसी को और उसे भरपेट खाना खिलाते थे। बहुत बार अनजान अजनबी लोग भी आते तो उनकी भी सहायता करते , शरण मिलती और कुछ ज़रूरत होती तो वो भी पूरी करते थे। एक दो बार तब भी लोग इस बात का गलत फायदा उठा गए मगर उनकी सजगता से कोई नुकसान नहीं हुआ। बाबाजी कहते थे सैंकड़ों में एक चोर हो सकता है मगर इसका मतलब ये नहीं कि किसी पर भरोसा ही नहीं किया जाये। धोखा खाना गलत नहीं होता धोखा देना गलत बात है। कोई बेटों से मिलने आता तो उसे आंगन में चारपाई पर बिठाते पानी पिलवाते और भीतर से बेटे को बुलाते मिलने को। चाहे कोई बेटियों की सहेली हो या फिर बच्चों के संगी साथी उनसे मिलने के बाद घर में जा सकते थे या घर के ऊपर की मंज़िल या फिर छत पर। सब कुछ सामन्य था किसी को कोई समस्या ही नहीं थी। मगर इस तरह से बहुत सारी समस्याएं घर के भीतर प्रवेश ही नहीं कर सकती थी। सही मायने में बड़े बूढ़े किसी सायादार पेड़ की तरह छाया देते थे और सायबान की तरह धूप गर्मी सर्दी लू से बचाते थे परिवार को।
मनमानी करने की छूट नहीं थी किसी को भी बड़े को न ही छोटे को। आज हर कोई खुद को अपनी मर्ज़ी का मालिक समझता है मगर अपनी हर उलझन अपनी समस्या से अकेले लड़ता है। ऐसे में चाहकर भी किसी अपने से राय अथवा सहयोग नहीं मांग सकता क्योंकि ऐसा करते उसे अपने छोटेपन का एहसास होता है। संयुक्त परिवार से अपने खुद अलग परिवार जिस में कभी माता पिता की जगह नहीं तो कभी बच्चों तक की नहीं समझते , ये उसी तरह है जिसे भीड़ भरे महानगर में सब अजनबी अकेले हैं। हर कोई हर किसी से दूर भागता है इक अनजाने डर के कारण।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएं