जो दवा के नाम पे ज़हर दे ( उल्टा सीधा ) डॉ लोक सेतिया
आपने कहानियां पढ़ी नहीं भी हों तब भी दादी-नानी से सही सुनी ज़रूर होंगी। परिकथा के साथ साथ विषकन्या की भी कहानी हुआ करती थी। जैसे आजकल लोग नेताओं की मीठी मीठी बातों में सुध बुध भुला देते हैं और इक तरह के सम्मोहन में फंस कर वही देखते सुनते बोलते ही नहीं सोचते समझते तक वही हैं जो ऐसे जादूगर चाहते हैं। जादू का खेल आजकल बाज़ार में चलन में कम बेशक हो जादू का खेल खेलने वाले खेल रहे हैं। सरकार कहती रहती है कभी कभी कि उसके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है गरीबी मिटाने को , मगर सत्ता मिलते खुद सत्ताधारी नेता कैसे मालामाल हो जाते हैं और कैसे उनका दल अचानक अमीर हो जाता है और हर राज्य हर शहर में उनके दफ्तर की ऊंची ऊंची आलीशान इमारतें खड़ी हो जाती हैं जो पचास साल में नहीं हुआ पांच साल में संभव हो जाता है तो कोई जादू की छड़ी होती ज़रूर है। मगर बात कुछ और है आज विषय है कि कैसे कोई ज़हर देता रहता है फिर भी लोग उसी को दुआ देते दिखाई देते हैं। ज़रूर उसके ज़हर में कुछ ख़ास है जो लोगों को मज़ा देता है।
राजा लोग दुश्मन को दोस्त बनाकर अपनी विषकन्या से कत्ल करवाते थे। देखने में बला की खूबसूरत मगर भीतर बदन पर विष ऐसा जो छूते ही मार डाले। आजकल महिलाओं के लिए पार्लर नाम की इक जगह है जो लैला को जूलियट बना देते हैं रंग बदल कर , फ़िल्मी किसी रंगभेद की बात नहीं है , उदाहरण का सीधा मकसद काले को सफेद कर दिखाना है। कुछ ऐसा ही होता है राजनीति में जिसको कोई चिमटे से नहीं छूना चाहता था उसे गले लगाते हैं जब दृश्य बदल जाता है। दागी अपराधी सब शरीफ हो जाते हैं सत्ता के साबुन से नहाने के बाद। जब कोई शासक बन जाता है तो उसकी तस्वीर हर जगह हर दीवार पर सरकारी दफ्तरों में इतनी प्यारी लगती है जैसे उसने चुनाव नहीं जीते सुंदरता की प्रतियोगिता में अवल आये हैं।
महलों में राजसी शान ठाठ मिलते ही बात भले गरीब परिवार में जन्म लेने की करते हैं ढंग और तौर तरीके महाराजा जैसे दिखने लगते हैं। इन्हें देख कर वो कहानी झूठी लगती है जिस में इक भिखारिन रानी बन कर भी भीख मांगने की आदत नहीं बदल पाती है। सत्ता पर आसीन होते ही जनता से वोट भी भीख की तरह नहीं मांगते हैं , गब्बरसिंह की तरह धमकाते हैं कि तुम्हारे पास बचने का एक ही उपाय है मेरी शरण में आना। रामगढ़ वाले भी ऐतबार करने लगते हैं यही उपाय अच्छा है , शायद इसी से अच्छे दिन का जुमला निकला होगा। शोले फिल्म इतिहास है और इतिहास दोहराया जा सकता है। अभिनय में दलीपकुमार से अमिताभ बच्चन तक नेताओं के सामने पानी भरते हैं। वास्तव में फ़िल्मी लोगों को नेताओं से सबक सीखना चाहिए। जब कभी भी फ़िल्मी महानयक और नायिका अपने दम पर राजनीति में आये हैं कमाल कर दिखाया है। सभी दल वाले उनको सभाओं में तभी बुलाया करते हैं। मगर बड़ा अंतर यही है कि फिल्म में अकेला नायक बीस गुंडों को मार गिराता है जबकि राजनीती में बड़बोले लोग बड़ी बड़ी बातें करते हैं मगर वास्तव में नतीजा शून्य होता है। ये शून्य भी अजीब है अकेला कोई हैसियत नहीं रखता लेकिन सौ के बाद हज़ार हज़ार के बाद दस हज़ार से अरबों की संख्या बना सकता है। ज्योतिष वाले शून्य के भाग्य को कभी नहीं बांच सके। शून्य कुछ नहीं है फिर भी सब कुछ है। आज की देश की राजनीति का ज़रूरी पाठ यही है।
मुँह में राम बगल में छुरी...बातें लुभावनी...काम खून चूसना गरीबों का
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