मेरा कातिल ही मेरा मुनसिब है , क्या मेरे हक में फैसला देगा।
आम नागरिक होना अपराध है , सरकारी अधिकारी होना न्यायधीश होना है - डॉ लोक सेतिया
कल ही मुझे ये डाक से मिला है। इस नोटिस में नाम भी सही नहीं है , कब आबंटित किया किस को किस ने नहीं लिखा गया , जिसे छपे हुए फॉर्म में रिहायशी बताया गया है वो वास्तव में संख्या से ही पता चल जाता है एस सी एफ 30 अर्थात शॉप कम फ्लैट नंबर तीस। इक कमर्सिअल प्लाट है जिसे किसी और विभाग ने इस विभाग के बनने और इस के एक्ट से पहले ही बेचा था पचास साल पहले बोली पर। जहां तक मुझे लगता है इस विभाग को तब उस विभाग के नियम और किसे बेचा क्या प्लान था विभाग का कुछ भी नहीं पता। मैंने जब ये प्लाट खरीदा और उस पर निर्माण किया तब ये मॉडल टाउन का एरिया हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण जो नाम अभी है और पहले हरियाणा अर्बन डेवलप्मेंट ऑथोरिटी था , उसके आधीन नहीं था , बाद में पहले विभाग के बिना बिके प्लॉट्स इस विभाग को मिले और इसने बेचे। वकील नहीं हूं मैं मगर इतना समझता हूं कि जो संम्पति किसी और विभाग ने इस विभाग के बनने से सालों पहले बेचे उस पर तब के विभाग के नियम लागू होंगे इस के नहीं जो तब बना ही नहीं था न ये एक्ट ही था तब। मगर ऐसा नहीं कि विभाग को ये सब नहीं मालूम , क्योंकि जब से हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण को ये स्थान्तरित किया गया अनबिके प्लॉट्स तब से तीस साल में मेरे भवन के बने पहले से ही को कभी कोई नोटिस नहीं दिया गया इसी विभाग द्वारा। वास्तविक बात आगे बताता हूं।
जनहित की शिकायत करना
मैं पहले भी चालीस साल से जनता के लिए समस्याओं को लेकर सरकार को सभी विभागों को जनहित की बात लिखने का कार्य करता रहा हूं। मैंने 27 नवंबर 2015 को इक शिकायत CMOFF/N/2015/114055
सी एम विंडो पर दर्ज करवाई थी। जो मेरे किसी निजि कारण नहीं बल्कि विभाग ही के प्लॉट्स पर अवैध कब्ज़ों और गंदगी और फुटपाथ पर कब्ज़ों आदि की थी। मगर दो साल तक सभी अधिकारी एक दूसरे को करवाई को भेज कुछ भी करने से बचते रहे। आखिर उसको मुख्यमंत्री कार्यालय ये लिखकर निपटान कर देता है कि ये इक सुझाव है शिकायत नहीं। मगर उसके बाद जो लोग यहां रिहायशी भवन में दुकानें खोले हुए हैं उनको विभाग के लोग बता गए कि आपकी शिकायत मैंने की है जबकि तब उस शिकायत को निपटा चुके थे अपनी साइट पर। ये कैसी अनुचित बात है कि विभाग अपने प्लॉट्स पर कब्ज़े हटवाने की जगह मुझे मुसीबत में डालना चाहता है। मैंने तब इक खुला पत्र लिखा था कि आपको नहीं हटवाना अवैध कब्ज़ों को तो मत हटाओ मेरा नाम बताकर मेरे लिए खतरा नहीं पैदा करो। हैरानी हुई जब विभाग के उच्च अधिकारी का पत्र मिला जिसमें अपने विभाग के सम्पदा अधिकारी को कोई करवाई सी एम विंडो की शिकायत पर अभी तक नहीं करने के साथ , "कोई शिकायत नहीं " मेरे पत्र को भी शिकायत में शामिल किया गया। मार्च में ये पत्र मिला मुझे।
सी एम विंडो पर दर्ज करवाई थी। जो मेरे किसी निजि कारण नहीं बल्कि विभाग ही के प्लॉट्स पर अवैध कब्ज़ों और गंदगी और फुटपाथ पर कब्ज़ों आदि की थी। मगर दो साल तक सभी अधिकारी एक दूसरे को करवाई को भेज कुछ भी करने से बचते रहे। आखिर उसको मुख्यमंत्री कार्यालय ये लिखकर निपटान कर देता है कि ये इक सुझाव है शिकायत नहीं। मगर उसके बाद जो लोग यहां रिहायशी भवन में दुकानें खोले हुए हैं उनको विभाग के लोग बता गए कि आपकी शिकायत मैंने की है जबकि तब उस शिकायत को निपटा चुके थे अपनी साइट पर। ये कैसी अनुचित बात है कि विभाग अपने प्लॉट्स पर कब्ज़े हटवाने की जगह मुझे मुसीबत में डालना चाहता है। मैंने तब इक खुला पत्र लिखा था कि आपको नहीं हटवाना अवैध कब्ज़ों को तो मत हटाओ मेरा नाम बताकर मेरे लिए खतरा नहीं पैदा करो। हैरानी हुई जब विभाग के उच्च अधिकारी का पत्र मिला जिसमें अपने विभाग के सम्पदा अधिकारी को कोई करवाई सी एम विंडो की शिकायत पर अभी तक नहीं करने के साथ , "कोई शिकायत नहीं " मेरे पत्र को भी शिकायत में शामिल किया गया। मार्च में ये पत्र मिला मुझे।
साफ लगता है मुझे जो नोटिस मिला है उसका मकसद बदले की भावना से मुझे प्रताड़ित करना है। इक 67 साल का वरिष्ठ नागरिक जो तीस साल से अपने मकान में रहता है और जिस के पास और कोई साधन नहीं है उसे अनावश्यक रूप से ऐसे दाव पेच में उलझना उसको मानसिक रूप से किस हद तक परेशान कर सकता है , ये अच्छा वेतन पाने वाले अधिकारी और राजनेता नहीं समझ सकते। इस आयु में जो किसी तरह गुज़र बसर करता है वो कैसे इनसे सच की लड़ाई लड़ सकता है जिनको आम नागरिक को अपने पद और अधिकारों का गलत उपयोग कर परेशान करते मानवता तक याद नहीं होती। शायद ऐसे में कोई ख़ुदकुशी तक कर सकता है जब उसके पास कानूनी लड़ाई लड़ने को साधन नहीं हों न ही कोई अनुचित कार्य किया हो। ये कमर्सिअल प्लाट है और सभी एक नंबर से तीस नंबर तक में कमर्सिअल ही काम हैं , डाकघर आयकर विभाग तक इसी में शामिल हैं। तीस साल पहले बने भवन से आज पूछना कब कैसे बना वह भी किसी एक को चुनकर , लगता है जैसे सरकारी विभाग किसी मनमाने ढंग से बदले की भावना से काम करता है।
मगर खुद इस विभाग ने किस किस जगह को प्लान को अनदेखा कर जिसे चाहा अलॉट किया ये कोई नहीं सवाल करता। खुद विभाग ने दुकानों के प्लॉट्स को धर्मशाला के नाम , पार्क की जगह को किसी संस्था को और कमनूयीटी सेंटर की जगह को किसी विभाग को बेच दिया। खुद विभाग अपने प्लान को मनमानी से बदलता है मगर आम नागरिक से उन नियमों की बात करता है जो प्लाट बेचते समय थे ही नहीं। शायद सरकारी विभाग को अपना असली मकसद लोगों को घर उपलब्ध करवाना याद नहीं , बस किसी तरह नियमों की लाठी से डराना और मुमकिन हो तो जुर्माना लगाना ही अपना काम लगता है। अपने कर्तव्य की बात कोई अधिकारी नहीं समझता , अधिकारों का सही और गलत इस्तेमाल करना जानते हैं। ये कुछ भी हो जनसेवा तो कभी नहीं कहला सकता।
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