हसरत ही रही ( अधूरा ख़्वाब ) डॉ लोक सेतिया
अकेला चला जा रहा था
राह में मिले कुछ लोग
वही पुरानी पहचान थी
वही बचपन की बातें हुईं ।
उन्हें भी गांव ही जाना था
रास्ता कब कैसे कट गया
पैदल चलते चलते नहीं पता
कोई थकान नहीं थी किसी को ।
घर की गली में आते याद आया
किसी जगह जाना था सभा में
थोड़ा समय अधिक हो गया था
सोचा पहले मां से मिलता हूं ।
दिल में इक हसरत थी उठी
आज अपनी झाई ( मां ) से
पांव छूने की जगह पहले जाते
कस कर लगना है मुझे गले ।
याद नहीं आता मुझे कभी भी
हुआ होगा ऐसा वास्तव में
सोचा भी नहीं लगता अजीब
दरवाज़ा खोला गया करीब ।
सब अपनों से राम राम हुई
रसोई में बना रही थी मां कुछ
बाहर से खुशबू आ रही थी
सुनाई दिया स्वर मां गा रही थी ।
गले मिलता पांव छूकर तभी
पास जाता अपनी मां के करीब
नींद खुली अधूरा रह गया ख़्वाब
हसरत दिल की हसरत ही रही ।
कितने बरस बीत गए इस बीच
दुनिया से चली गई मां भी
बचपन कहां अब बुढ़ापा है
नहीं उस गली गांव से नाता है ।
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