अप्रैल 15, 2018

रास्ता अंधे सबको दिखा रहे ( समाज और सरकारी संस्थाओं की वास्विकता ) डॉ लोक सेतिया

                रास्ता अंधे सबको दिखा रहे 

      ( समाज और सरकारी संस्थाओं की वास्विकता ) डॉ लोक सेतिया

      सब से पहले साफ़ करना चाहता हूं कि इस आलेख का एक ही मकसद है खुद को अपने समाज को अपनी सरकार को प्रशासन को समाजिक धार्मिक संस्थाओं को वास्तविकता बताना , आलोचना करने के लिए आलोचना करना कदापि नहीं और न ही किसी व्यक्ति या संस्था पर आक्षेप ही है। अभी की इक घटना से शुरआत करना सही होगा क्योंकि इस से सभी की आंखे खुल सकती हैं। मगर उनकी नहीं जो वास्तव में गंधारी की तरह आंखों पर पट्टी बांधे हुए हैं। महाभारत की बात नहीं करनी मगर सोचता हूं अगर किसी औरत का पति अंधा हो तो उसे अपनी आंखे खुली रखनी चाहिएं उसकी सहायता को या फिर खुद को खुद को अंधेरों में कैद कर लेना चाहिए। 
 
         खबर पढ़कर मन विचलित हुआ कि बलात्कार का विरोध करने को कैंडल मार्च में किसी महिला के साथ अनुचित आचरण किया गया। यही इस समाज का सच है जो खुद गंदी मानसिकता वाले हैं वो दूसरों को गलत बता खुद अपने गिरेबान में नहीं झांकते हैं। आज से नहीं अन्ना हज़ारे के आंदोलन में भी देखा रिश्वतखोर लोग मंच से भाषण देते रहे। मैं जयप्रकाशनारायण जी के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन का साक्षी रहा हूं और जानता  हूं कि तब जो लोग शामिल थे बाद में सत्ता मिलते ही कैसे साबित हुए। आज भी लोग किसी भी काम में समाजिक सुधार करने को या समाज की सेवा करने को नहीं बल्कि उसको सीढ़ी बनाकर अपने स्वार्थ सिद्ध करने को शामिल होते हैं। कुछ लोग जो किसी के सुख दुःख में शामिल नहीं होते समय का अभाव का बहाना होता है वही सरकारी विभाग की बनाई संस्था में सदस्य बनने को सब कुछ करते हैं और बाद में अधिकारीयों की हाज़िरी भी लगाते हैं। उन्हें अपने नाम के साथ लिखवाना होता है अमुक अमुक की समिति का सदस्य है।

                                  उलटी गंगा बहाना

      पहले समझना होगा कि सरकार या कोई विभाग या अधिकारी जब कोई समिति बनाता है तो उसका घोषित मकसद क्या होता है। दावा किया जाता है कि जो लोग सरकारी अधिकारी से मिलने में डरते हैं या खुद विभाग में जाकर शिकायत नहीं करना चाहते उनसे ये समिति खुद मिलकर सहयोग कर सकती है और उनकी बात विभाग तक पहुंचा सकती है। मगर ये लोग कभी आम लोगों के पास जाकर नहीं पूछते कि आपको कोई समस्या या परेशानी हो तो हमें बताओ हम आपकी बात पहुंचा सकते हैं। उल्टा ये लोग चाटुकार बनकर जब किसी आम नागरिक ने किसी विभाग से कोई शिकायत की हो या कोई जानकारी दी हो गलत काम होने की तब उस विभाग के पैरोकार बनकर उस से कहते हैं हमें बताओ क्या बात है। ताकि उस विभाग की बातों पर परदा डालने को उस व्यक्ति से लिखवा सकें सब ठीक है बिना कुछ भी ठीक हुए। समिति जनता की बात की है या सरकारी विभाग और अधिकारी की बचाव की। मगर इन में शामिल लोगों को इन बातों का मतलब नहीं , उन्हें तो अपने नाम के साथ समिति का सदस्य होने का फायदा उठाना होता है समाज में ही नहीं सरकारी कामकाज में भी। उनके पर कोई अधिकार नहीं आपकी समस्या के हल का उनका काम डाकिये की तरह आपकी चिट्ठी ले जाने लाने का है। मगर डाकिये बहुत भले लोग हुआ करते थे जो सब के सुख दुःख में शामिल होते थे , अब तो डाकिया खत समय पर दे जाता है तो उपकार करता है। 

                   कुछ पुरानी संस्थाओं की असली बातें

      मुझे एक लेखक को अपनी जाति की नहीं सबकी बात करनी चाहिए , फिर भी कई साल पहले इक संस्था का गठन किया ताकि समाज में बुराइयों को भेद भाव को मिटाने का काम किया जाये। मगर कुछ ही दिन में किसी को नाम शोहरत और रुतबा पाना था इसलिए असली मकसद छोड़ बाकी सब काम किये जाने लगे तो किनारा कर लिया। आज भी बहुत लोग उस में हैं तो किसी संस्था की सम्पति के अघोषित मालिक बनने की खातिर या तमगा लगा सही गलत की बात को दरकिनार करने को। धार्मिक काम का नाम रखकर कारोबारी तरीके अपनाना तो और भी अनुचित है। शाकाहारी भोजनालय नाम और खाते खिलाते सब कुछ तो ये विश्वास और भरोसे को तोडना है। 
                 कुछ साल पहले इक मंदिर की सभा के अध्यक्ष बनने की खबर पढ़कर उन मित्र से पूछा कि आप तो भगवान को नहीं मानते और नास्तिकता की बातें करते हैं फिर आप इस में कैसे शामिल हैं। कहने लगे कल को राजनीति करनी है तो धार्मिक होने का दिखावा करना पड़ता है। दो चार हज़ार में ये सौदा महंगा नहीं है। यकीन मानिये तमाम धार्मिक संस्थाओं सभाओं धर्मशालाओं स्कूलों अस्पतालों में यही हालत है। उन्हें किसी देवी देवता से मतलब नहीं , कुछ लोग मंदिर भी जाते हैं जब उस मंदिर के स्वामी जी आते हैं। मंदिर भगवान के नहीं इन्हीं लोगों के हैं और ऐसा सभी धर्मों में है मस्जिद गुरूद्वारे सब के मालिक हैं कुछ लोग। 
       इक बार इक और संस्था का गठन किया था , बदलाव की बात थी। फिर होने लगा कि महीने बाद मिल बैठ मस्ती की और इक पत्र लिख भेज दिया अधिकारी को , जनहित की बात मकसद नहीं था , कहा गया उनको मालूम होना चाहिए हम लोग संगठित हैं और हम जब बड़े अधिकारी के दफ्तर जाएं तो आदर से अंदर बैठ उनके साथ अख़बार वालों की तरह चाय पकोड़े या ठंडा पीकर शान बढ़ाएं। 
 

                                       अंत में कुछ शेर :-

            रास्ता अंधे सबको दिखा रहे , वो नया कीर्तिमान हैं बना रहे। 

            सुन रहे बहरे भी बड़े ध्यान से , गीत मधुर गूंगे मिलकर गा रहे। 

दुष्यंत का शेर भी :- यहां दरख्तों की छांव में धूप लगती है , चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए। 


 


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