सितंबर 16, 2017

बेखबर को क्या खबर ( शिक्षा की बात ) डॉ लोक सेतिया

    बेखबर को क्या खबर ( शिक्षा की बात ) डॉ लोक सेतिया 

               मैं न तो अमिताभ बच्चन को भगवान मानने वालों में हूं , न ही कौन बनेगा करोड़पति जैसे टीवी शो को उचित ही समझता ही हूं। मुझे मालूम है इस का ज्ञान का भंडार होने और लोगों के सपने सच करने के दावे के पीछे का मकसद क्या है। कभी कभी सोचता हूं कोई एक एपीसोड ऐसा भी हो जिस में इसी शो के बारे सवाल हों और उनके जवाब इन्हीं से मांगे जाएं। तब इक खेल का सच सब को पता चलेगा , मगर ऐसा वो कभी नहीं करेंगे। कौन खुद को कटघरे में खड़ा करना चाहता है। सब किसी भी तरह धनवान बनना चाहते हैं और महान उद्देश्य की बात से लोगों को बहलाना भी चाहते हैं। कल ही इक वैद जी का संदेश व्हाट्सएप पर आया जिस में इक चूरण की कीमत 40 रूपये से 100 रूपये करने की बात कहकर सवाल किया कैसे आप मुनाफाखोरी नहीं करते हैं , इक और ने मल्टीग्रैन आटे की कीमत का सच समझाया था कि जिन अनाजों की कीमत मिलाकर बीस रूपये भी नहीं बनती आप पचास रूपये दाम वसूलते हैं। फिर भी मैं दो कारणों से के बी सी का शो देखता हूं , एक क्योंकि उस में शामिल होने वालों में बहुत लोगों की बातों से बहुत नया जानने को मिलता है , दूसरा उस समय के टीवी सीरियल और समाचार चैनल के अत्याचार से बचने का ये बेहतर विकल्प है। 
 
                 कल 15 सितंबर को दो लोग आये थे इस खेल में। इक महिला जो अध्यापिका हैं , सरकारी स्कूल में पढ़ाती हैं इक ऐसी योजना में जिस में उनको कोई वेतन नहीं मिलता है। उन्हें बस से कई किलोमीटर दूर खुद सौ रूपये आने जाने का किराया खर्च कर जाना होता है। पांच साल से बिना वेतन वो शिक्षा देने का धर्म निभा रही हैं इस उम्मीद पर कि कभी उनका चयन होगा और तब उनको वेतन मिलेगा और जितने साल तक बिना वेतन काम किया उसका भी हर साल कुछ फीसदी मिलेगा। उन के पति भी दस साल तक इसी तरह शिक्षक का काम करते रहे। मुझे बहुत हैरानी हुई , जबकि होनी नहीं चाहिए , क्योंकि खुद मैं भी कुछ हद तक ऐसा ही तो कर रहा हूं। कितने अख़बार पत्रिकाओं में रचनाएं छपती हैं मगर मिलता कुछ भी नहीं , जेब से ही टाइपिंग डाक खर्च करता हूं। बहुत थोड़े हैं जो कहने भर को कुछ देते हैं। मगर मुझे अपनी बात नहीं करनी है , उस अध्यापिका जैसे शिक्षकों की करनी है। सरकार के पास बजट नहीं है खाली स्थान नहीं हैं मगर ज़रूरत है शिक्षकों की। जिनकी मज़बूरी है बेरोज़गार हैं खाली बैठने से काम करना बेहतर समझते हैं उनकी विवशता का उपयोग करती है सरकार। इसे शोषण भी नहीं कह सकते , कोई विवश नहीं करता है , मगर शिक्षक दिवस को कोई इसकी बात क्यों नहीं करता। हिंदी दिवस पर कोई हिंदी लेखकों के दर्द की बात भी क्यों नहीं करता है। दोनों दिन अभी अभी आये और बीत गए बिना कुछ भी बदले। ये अच्छा हुआ वो अध्यापिका इस से कुछ लाख की राशि जीत कर ले गईं जिस से कम से कम उस के ब्याज से उनके स्कूल आने जाने का बस का किराया तो मिल ही सकता है। मगर क्या राज्य की सरकार को इतनी भी संवेदना नहीं दिखलानी चाहिए कि ऐसे शिक्षक को सरकारी बस में टिकट तो नहीं लेना पड़े। 
 
             इक और समाजिक कार्य करने वाले भी कल आमंत्रित किये गए थे। वो कई राज्यों में गूंज नाम की संस्था द्वारा बहुत अच्छे काम कर रहे हैं। मगर उनकी इस तरफ आने की शुरुआत की बात किसी भी संवेदनशील को भीतर तक झकझोर सकती है। इक रिक्शा वाले से जिस के रिक्शा पर लिखा हुआ था लावारिस लाशों को ले जाने को रिक्शा है। पता चला उसे लावारिस लाश , देश की राजधानी दिल्ली में , सड़क पर फुटपाथ पर , दुर्घटना से , या सर्दी में ठंड से मौत होने पर कहीं ले जाने के बीस रूपये और दो मीटर कपड़ा मिलता है जिस से उसका गुज़र होता है। सब से अधिक विचलित करने वाली बात थी जो उसकी पांच साल की बच्ची ने कही। जब खुले आसमान तले रात को उसको ढंड लगती है तो वो उस लाश से लिपट कर सो जाती है और उस को गर्मी भी मिलती है और लाश करवट भी नहीं बदलती है। उस से उनको लगा केवल कपड़े नहीं होने से कितने लोग सर्दी से मौत का शिकार हो जाते हैं। अमिताभ बच्चन जी ने जो कपड़े उनको के बी सी वाले देते हैं पहनने को और जिनको बाद में वो उपयोग करते नहीं उनकी संस्था को दान में देने की बात की। मुझे महात्मा गांधी की बात याद आई कि उन्होंने लोगों को नंगे बदन देखकर खुद केवल एक धोती पहनने की बात की। आज के नेता उन्हीं की राह पर चलने और उनके नाम पर योजनाएं घोषित करते हैं , गाँधीवादी होने का आडंबर किया करते हैं , मगर अपने शानदार कपड़ों पर कितना धन खर्च करते हैं कोई नहीं जानता। गरीबों के लिए दिखावे की सहानुभूति नहीं वास्तविक संवेदना होनी चाहिए। खुद को मसीहा बताने वालों में मुझे तो नहीं नज़र आई कभी। हम लोग भी कहां ये सब सुनकर विचलित होते हैं। 

 

1 टिप्पणी: