न्याय और सज़ा ( इक लोक-कथा ) डॉ लोक सेतिया
( नीति कथा , लोक कथा , के लेखक अनाम होते हैं )
कोतवाल तीन लोगों को लेकर आया। तीनों का अपराध एक जैसा ही था। राजा ने तीनों की तरफ देखा। एक मुंह छुपाने की कोशिश कर रहा था , एक सर झुकाये खड़ा था नीची नज़रें किये हुए , एक सर उठाकर देख रहा था इधर उधर , सभा में , राजा की तरफ जैसे देखना चाहता हो कौन कौन है यहां उपस्थित।
तीनों के गुनाह साबित किया गया और सज़ा तय करने की बारी आई। राजा ने एक को जो सर झुकाये खड़ा था केवल इतना ही कहा कि आपने ऐसा क्यों किया , और जाने की अनुमति दे दी बिना कोई सज़ा दिए ही। दूसरे को जो मुंह छुपा रहा था उसे सज़ा दी गई भरी सभा में खुद ही अपनी पगड़ी उतार घर जाने की। तीसरे को जो सर उठाये सभा को देख रहा था उसे सौ कोड़े लगाकर मुंह काला कर नगर के चार चक्क्र गधे पर बिठाकर लगवाने की सज़ा सुनाई गई।
इक सभासद ने पूछा सब की अलग अलग सज़ा का क्या अर्थ है। न्याय सब का एक समान होना चाहिए। राजा ने कहा तीन लोग जाओ एक एक उन तीनों के पीछे और आकर बताओ सज़ा मिलने का किस पर क्या असर हुआ।
कुछ देर में तीनों के पीछे भेजे लोग वापस आये और बताया क्या क्या देखा है। जिस को केवल इतना कहकर जाने दिया था कि आपने ऐसा क्यों किया , उस ने घर जाकर अपने गले में फंदा डालकर ख़ुदकुशी कर ली थी। जिसको पगड़ी उतारने की सज़ा दी थी वो अपनी बदनामी को देख कर नगर और राज्य को छोड़कर चला गया था। मगर जिसे कोड़े लगाने मुंह काला करने और गधे पर नगर के चक्क्र लगवाने की सज़ा दी गई थी वो जब अपने घर के पास पहुंचा तो अपनी पत्नी से बोला बस ये चौथा चक्क्र है मैं आता हूं अभी तुम मेरे लिए नहाने का पानी गर्म कर लो।
शायद इसका अर्थ समझाना ज़रूरी नहीं है।
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