अक्तूबर 02, 2016

किस दिशा में जा रहा है समाज ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

 किस दिशा में जा रहा है समाज ( आलेख )  डॉ लोक सेतिया

              कहां से शुरू करूं आप ही बताओ , अपने से , आप से , उन से जिनको सभी समझते हैं कि वो राह दिखाते हैं औरों को , या जिनकी हर बात का अनुसरण करते लोग , अथवा जो इन सभी से अधिक जानकार खुद को मानते हैं। सवाल बहुत सीधा है जीवन क्या है और किसको जीना कहते हैं। अख़बार पत्रिका टीवी चैनेल भी सभी को ध्यान से देखने पर लगता है जैसे बस दो ही उद्देश्य हैं इंसानों की खातिर। पैसा और मनोरंजन। आप अगर सोशल मीडिया पर हैं तब भी आपको सिर्फ समय बिताना है मौज मस्ती की बातों से। अगर कोई समझता है कि वहां लोग संजीदा बातों को पढ़ते हैं और संवेदनशील बनते है तो आपको वास्तविकता और बनावट में अंतर करना नहीं आता है। समझ नहीं आता करोड़ों लोग क्या हासिल करते हैं पूरा दिन फेसबुक या व्हाट्सऐप पर रह कर। टीवी अख़बार कभी लोगों को जानकारी देने और जागरुक करने का ध्येय लेकर चलते थे , आज विज्ञापनों की आय के मोह में ऐसे अंधे हुए हैं कि उचित और अनुचित की परिभाषा तक बदल ली है उन्होंने। क्या हंसना ही ज़िंदगी का मकसद होना चाहिए , टीवी शो सिनेमा से पत्रकारिता तक उलझे हैं बेहूदा बातों पर हंसने को सही बताते हुए जबकि ऐसी बातों पर कभी सोचा जाये तो रोना आना चाहिए। खेद है कि हर जगह इक बीमार मानसिकता हावी नज़र आती है जिस में औरत और मर्द में एक ही रिश्ता दिखाई देता है , वासना का। लोग बेशर्मी से इज़हार करते हैं टीवी पर अपनी गंदी सोच की कुत्सिक भावनाओं का। कॉमेडी शो से समाचार के चैनल तक सभी अपनी गरिमा को भुला चुके हैं। कभी कभी किसी कार्यक्रम में भावुकता भी दिखाई देती है और आंसू भी पल भर को , मगर तभी मंच संचालन करने वाला प्रयास करता है उसको भुला फिर से हा - हा का शोर शुरू करने का। क्या भावुकता और किसी के दुःख दर्द को समझ संवेदनशील होना ऐसी बात है जो नहीं हो तो बेहतर है। सोचा जाये तो पता चलता है यही आज अधिक ज़रूरी है , ऐसा इंसान बनना जो केवल अपने लिये मौज मस्ती और हंसी ही नहीं चाहे बल्कि समाज और बाकी लोगों की भी चिंता करे।

             टीवी पर धर्म के बारे बताते हैं वो लोग जिनको खुद अपना धर्म तक याद नहीं , पत्रकारिता क्या है , खबर किसको कहते हैं , और इक शब्द होता है पीत पत्रकारिता जिसको आज कोई बोलना तक नहीं चाहता क्योंकि पत्रकारिता इस कदर पीलियाग्रस्त हो चुकी है कि उसका ईलाज तक असंभव हो गया है। अंधविश्वास को बढ़ावा देना अपने आर्थिक फायदे की खातिर क्या यही पत्रकारिता का ध्येय है। लोगों को क्या ज्ञान देना चाहते हैं , उनकी समस्या किसी तालाब पर स्नान करने से , कोई जादू टोना , तथाकथित ज्योतिषीय उपाय से हल होगी अथवा खुद अपने प्रयास से। भाग्यवादी बना कर आप किसी का भला नहीं कर सकते हैं।  विडंबना की बात है आज विज्ञान के युग में और जब हमारे पास साधन हैं लोगों तक सभी तरह की जानकारी पहुंचाने को तब हम उनका सदुपयोग नहीं कर उल्टा दुरूपयोग करते हैं। आधुनिक सुविधाओं का सही उपयोग कम अनुचित उपयोग अधिक होने लगा है। निजि स्वतंत्रता के नाम पर क्या समाज को गलत मार्ग पर जाते देखना सही होगा।
                      अपराध हैं कि बढ़ रहे हैं , खासकर महिलाओं से अनाचार की घटनाओं में जैसे कोई रोक लगती दिखाई ही नहीं देती। संगीत का नाम पर , टीवी सीरियल या सिनेमा के मनोरंजन की आड़ में समाज को विशेषकर युवा वर्ग को भ्रमित किया जा रहा है और उनकी समझ को प्रदूषित। सब से खेदजनक बात ये है कि सरकार , धर्म की बातें करने वाले भी फ़िल्मी और टीवी मनोरंजन वालों की तरह देश की सत्तर प्रतिशत जनता को भूल गये हैं जिनको चमक दमक और आडंबर नहीं वास्तविक बातों से मतलब है। शिक्षा रोज़गार गरीबी छत और रोटी पानी ईलाज की समस्या। इन सभी के पास देश की बहुमत आबादी के वास्ते खोखली बातों के सिवा कुछ भी नहीं। ऐसे में साहित्य रचने वालों को तो सोचना होगा , किन की बात कहनी है लेखन में , या उनको भी अपने खुद के नाम शोहरत और ईनाम पुरुस्कार की दौड़ में ही समय बिताना है ताकि आखिर में समझ आये कि रौशनी की बातें करते करते भी अंधकार को ही बढ़ावा देते रहे हैं तमाम उम्र।

        विषय गंभीर है और इस पर चरचा भी कभी खत्म नहीं हो सकती , मगर आज यहीं विराम देते हैं। 

 

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