मई 08, 2016

मुझे सज़ा दे दो ( मंथन ) ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    मुझे सज़ा दे दो ( मंथन ) कविता    डॉ लोक सेतिया

कब से खड़ा हूं कटघरे में
सुन रहा हूं इल्ज़ाम सभी के
सर झुकाये खड़ा हुआ हूं 

नहीं है कोई भी जवाब देने  को
मानता हूं नहीं पूरे कर पाया
सभी अपनों के अरमानों को 

हो नहीं सका कभी भी जीवन में सफल
टूट गये सभी ख्वाब मेरे ।

कभी कभी सुनता हूं
किसी को हर कदम
किसी ने दिया प्रोत्साहन ,
कुछ भी करने को देकर बढ़ावा
किया भरोसा उसकी काबलियत पर ।

लगता है तब मुझे कि
शायद कोई तो कभी
 
मुझे भी कह देता प्यार से
बेशक सारी दुनिया
तुमको समझती है
नासमझ और नाकाबिल
 
मुझे विश्वास है तुम्हारी लगन
और कभी हार नहीं मानने की आदत पर ।

बस इतना ही मिल जाता
तो शायद मैं कभी भी
नहीं होता नाकामयाब ।

कैसे समझाता किसी को
किसलिये हमेशा रहा
डरा सहमा उम्र भर 

मेरा आत्मविश्वास
बचपन से ही कभी
उठ नहीं सका ऊपर 

खुद को समझता रहा मैं
अवांछित हर दिन हर जगह हमेशा ।

इक ऐसा पौधा
जो शायद उग आया
अनचाहे किसी वीरान जगह पर
जहां कोई नहीं था
देखभाल करने वाला
बचाने वाला आंधी तूफान से ।

हर कोई कुचलता रहा
रौंदता रहा मुझे
बेदर्दी से कदमों तले
कोई बाड़ नहीं थी मुझे बचाने को ।

बेरहम ज़माने की ठोकरों से
बार बार उजड़ता रहा
फिर फिर पनपता ही रहा
अपनी बाकी जड़ों से
और बहुत बौना बन कर रह गया
इक पौधा जिस पर थे सूखे पत्ते ही ।

कभी ऐसा भी हुआ
जिनको मुझ से
कोई सरोकार ही नहीं
किसी तरह का
उनकी नज़रों में भी
मुझे नज़र आती रही हिकारत ।

छिपी मीठी बातों में भी
किसलिये लोग अकारण ही
किया करते हैं मुझ जैसों को प्रताड़ित
जाने क्या मिलता उनको
औरों का दिल दुखा कर हमेशा ।

चाहता था मैं भी सफल होना
सभी की उम्मीदों पर
खरा साबित होना 

शायद ज़रूर हो जाता कामयाब
जीवन में अगर कोई एक होता जो
मुझे समझता मुझे परोत्साहित करता ।

मेरा यकीन करता
और मैं कर सकता
हर वो काम जो
कभी नहीं कर पाया आज तक ।

मगर आज मुझे नहीं देनी
कोई भी सफाई
अपनी बेगुनाही की
खड़ा हूं बना मुजरिम
सभी की अदालत में
कटघरे में सर झुकाये ।

मांगता हूं सज़ा
अपने सभी किये अनकिये
अपराधों की खुद ही 

मुझे सज़ा दो जो भी चाहो मुझे मंज़ूर है
आपकी हर सज़ा मगर बस अब
अंतिम पहर है जीवन का 

बंद कर दो और आरोप लगाना
गुनहगार हूं मैं मुझे नहीं मालूम
क्या अपराध है मेरा
शायद जीना । 
 

 

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