जून 13, 2016

POST : 511 ये किन लोगों की बात है ( मानवाधिकारों की बात ) डॉ लोक सेतिया

 ये किन लोगों की बात है ( मानवाधिकारों की बात ) डॉ लोक सेतिया

                  आज जैसे मेरे अंदर सोया हुआ कोई फिर से जाग गया । बहुत दिन से अखबारों में चर्चा थी 
 31 मई को फतेहाबाद में मानव अधिकार आयोग की सभा आयोजित होनी है । सोचा चलो चल कर देखते हैं शायद कुछ विशेष मिल जाये जो सार्थक हो । पता चला कि सैमीनार आलीशान बैंकट हाल में होना है क्योंकि सरकारी सभी इमारतों के हाल वातानुकूलित नहीं है , और बड़े बड़े लोग आने हैं भाषण देने को । जब मैं वहां पहुंचा तो देखा प्रवेश के मुख्य द्वार पर बैठे पुलिस वाले आम लोगों को दूसरे रास्ते से भेज रहे हैं । मैंने पूछा क्या सभा उधर हो रही है , तो बताया गया कि नहीं सभा तो यहीं ही है मगर , मैंने कहा , क्या ये दरवाज़ा ख़ास लोगों के प्रवेश के लिये सुरक्षित है । तब इक पुलिस वाले ने इशारा किया दूसरे को कि मुझे यहीं से अंदर जाने दे , और मैं भीतर चला गया । हाल भरा हुआ था और अधिकतर सरकारी लोग , पंचायतों के सदस्य , और तमाम बड़े तबके के लोग या संस्थाओं से जुड़े लोग ही नज़र आ रहे थे । जिन गरीबों मज़दूरों , घरों में दुकानों में काम करने वाले बच्चों को कोई अधिकार नहीं मिलता , उन में से कोई भी वहां नहीं दिखाई दिया मुझे । देखते ही किसी शानदार पार्टी का आयोजन जैसा प्रतीत हो रहा था । सभा शुरू हुई तो बात मानवाधिकारों की हालत पर चिंता की नहीं थी , संचालक अधिकारी लोगों की महिमा का गुणगान करने लगा था । मुझे इक मुल्तानी कहावत याद आई , तू मैनू महता आख मैं तैनूं महता अखेसां । उसके बाद आयोग के लोग बताते रहे कि दो तीन साल में ही हरियाणा का मानव आयोग एक कमरे से शुरू होकर आज एक पूरे भवन में काम कर रहा है । बिलकुल सरकारी विकास के आंकड़ों की तरह , जिसमें ये बात पीछे रह जाती है कि जिस मकसद से संस्था गठित हुई वो कितना पूरा हुआ या नहीं हुआ । बस कुछ सेवानिवृत लोगों को रोज़गार मिल गया , यही अधिकतर अर्ध सरकारी संस्थाओं में होता है जहां करोड़ों का बजट किसी तरह उपयोग किया जाता है , साहित्य अकादमी भी ऐसी ही एक जगह है ।

                  भाषण होते रहे और अधिकतर मानवाधिकारों के हनन की बात से इत्तर की ही बातें हुई । लगता ही नहीं कोई समस्या भी है किसी को मानवाधिकार नहीं मिलने की । अच्छा हुआ कोई पीड़ित खुद नहीं आया वहां वरना निराश ही होता , जो कुछ लोग थोड़ी समस्याएं लेकर गये उनको भी पुराने सरकारी ढंग से स्थानीय अफ्सरों से मिलने की राय दी गई । और जिनकी शिकायत उन्हीं को हल निकालने की बात कह कर समस्या का उपहास किया गया जैसे । तीन चार घंटे चले कार्यक्रम में कहीं भी चिंता या मानवाधिकारों की बदहाली पर अफसोस जैसा कुछ नहीं था , मानों कोई दिल बहलाने को मनोरंजन का आयोजन हो । बार बार संवेदना शब्द का उच्चारण भले हुआ , संवेदना किसी में कहीं नज़र नहीं  आई । वास्तव में ये सभी वो लोग थे जिनको कभी जीवन में अनुभव ही नहीं हुआ होगा कि जब कोई आपको इंसान ही नहीं समझे तब क्या होता है । पता चला ये आयोग राज्य के बड़े सचिव मुख्य सचिव स्तर के अधिकारियों को सेवानिवृत होने के बाद भी पहले की ही तरह सरकारी सुख सुविधा पाते रहने को इक साधन की तरह उपयोग किया जाता है । जो सरकार सत्ता की अनुकंपा से ऐसा रुतबा पाते हैं उन्हीं से अपेक्षा रखना कि नागरिक को सरकार और अधिकारी वर्ग से वास्तविक मानवाधिकार दिलवाने का कर्तव्य निभाएं इक मृगतृष्णा जैसा है । न्यायधीश तक सेवा काल खत्म होने के बाद अपने लिए सब कुछ पाने को इसका उपयोग करते हैं । शायद ही किसी को वास्तविक मकसद की कोई परवाह है । अंधी पीसती है कुत्ते खाते हैं की कहावत सच लगती है , शिक्षित लोग देश समाज की नहीं अपनी चिंता करते हैं और उनको अपने सिवा कोई नज़र आता नहीं है । ये जो लिखा उस दिन सामने देखा वास्तविकता है मानवाधिकार क्या हैं शायद अभी हमारे देश में किसी ने समझा ही नहीं है । आडंबर करना हमारी आदत बन गई है जो कभी हमारे समाज की परंपरा नहीं रही है । 
 

 

1 टिप्पणी:

  1. शानदार लेख...जिनके अधिकारों पर बात होनी वो ही सभा से नदारद। यही होता है👍👌

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