फ़रवरी 05, 2016

POST : 492 ट्विटर , फेसबुक और व्हट्सऐप वाली सरकार ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      ट्विटर , फेसबुक और व्हट्सऐप वाली सरकार ( व्यंग्य ) 

                                     डॉ लोक सेतिया

किसी बच्चे ने पत्र लिखा प्रधानमंत्री जी को और उसकी समस्या का समाधान किया गया ये बात टीवी के समाचार चैनेल पर विस्तार से दिखाई गई। क्या वास्तव में इसको खबर कहते हैं ? चलो खबर वालों से पूछते हैं खबर की परिभाषा क्या है ? परिभाषा ये है कि खबर वो सूचना है जो कोई जनता तक पहुंचने नहीं दे रहा , पत्रकार का फर्ज़ है उसको खोजना , उसका पता लगाना और उसकी वास्तविकता को सभी को बताना। मगर जिस बात का नेता अफ्सर या अन्य लोग खुद डंका पीट रहे हों उसको खबर कैसे कह सकते हैं , अगर ध्यान दो तो आजकल यही छापा जा रहा अख़बारों में और दिखाया जा रहा सभी टीवी चैनेल्स पर। जिनको याद ही नहीं खबर की परिभाषा वो पत्रकारिता और विचारों की अभिव्यक्ति की सवतंत्रता की बातें करते हैं।

                                                 " रास्ता अंधे सब को दिखा रहे
                                                 वो नया कीर्तिमान हैं बना रहे। "

  ऐसी कुछ और भी खबरें हैं , इक महिला रेल मंत्री को ट्विटर पर अपने बच्चे के भूखे होने की बात बताती है रेल में यात्रा करते समय और रेल मंत्री आदेश देते हैं और अगले ही स्टेशन पर अधिकारी दूध लेकर उपस्थित होते हैं। मगर कोई ये नहीं सोचता कि खुद इक मां को पहले ही क्या याद नहीं था कि उसके बच्चे को सफर में भूख लगेगी तो दूध की ज़रूरत पड़ेगी। चलो ऐसा भी किसी से भी हो सकता है। मगर इस खबर से क्या हम उस दर्दनाक घटना को भूल सकते हैं जब कोई यात्री बीच सफर दुर्घटना का शिकार हो जाता है और ट्रैन की चैन खींचने पर ट्रैन नहीं रूकती न ही स्टेशन के कर्मचारी ध्यान देते हैं और किसी यात्री के शरीर के टुकड़े होने के बाद भी और भी रेल गाड़ियां उसको कुचलती गुज़र जाती हैं।

         शासक यही किया करते हैं , दान के , धर्म के चर्चे हर जगह प्रचारित किये जाते हैं और जहां कर्तव्य नहीं निभाया उसकी कभी बात नहीं की जाती। कोई अपनी समस्या मंत्री जी को व्हाट्सऐप पर बताता है और मंत्री जी सहायता करें ये अच्छी बात है , मगर जिनके पास मंत्री जी का नंबर नहीं हो उनका क्या ? क्या देश में सभी को सभी मंत्रियों के फोन नंबर मालूम हैं। वास्तव में हर दिन जिनसे जनता का वास्ता पड़ता है उन अधिकारीयों के फोन कभी मिलते ही नहीं , बहुत दफ्तरों में फोन करो तो बात सुनने की जगह फैक्स से जोड़ देते हैं। जिसको फैक्स नहीं करना हो बात करनी हो वो क्या करें। और जब किसी अधिकारी के दफ्तर का फोन मिल भी जाये तो कौन हैं क्या काम है पूछने के बाद साहब मीटिंग में हैं या अभी आये नहीं ऐसा बताया जाता है।  एक सौ पच्चीस करोड़ लोगों के देश में कितने लोग हैं जिनको आधुनिक संचार साधनों से अपनी समस्या प्रशासन तक पहुंचानी आती होगी। जब नेता और प्रशासन घोषणा  करता है ऐसी किसी योजना की तब सोचना  होगा क्या ये सभी के लिए सम्भव है।

              मुझे जनहित के पत्र अख़बारों में , नेतओं को , मंत्रियों को , सभी दलों की सरकारों को लिखते 4 5 साल हो गए हैं और इस बीच बहुत कुछ बदला है , गंगा यमुना से कितना पानी बह चुका है मगर इन तथाकथित जनता के सेवकों का रवैया नहीं बदला है। उनको आज भी कोई कर्तव्य की याद दिलाये तो बुरा लगता है , ये सभी चाहते हैं लोग उनसे अधिकार नहीं सहायता की भीख मांगे , हर दिन उनका यही दावा होता है कि देखो हमने लोगों की भलाई के लिए क्या कुछ नहीं किया। ये कभी नहीं बताते जो कुछ करना चाहिए था मगर नहीं किया गया उसका क्या हुआ।

                                          हक नहीं खैरात देने लगे ,
                                          इक नई सौगात देने लगे।

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