सितंबर 13, 2015

POST : 488 हिंदी है माथे की बिंदी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

       हिंदी है माथे की बिंदी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

   हिंदी दिवस मनाने वाले हैं , पुराना राग सुनाने वाले हैं , हलवा-पूरी खाने वाले हैं , श्राद्ध पक्ष बताने वाले हैं , जाने किस किस को समझाने वाले हैं , रूठने और मनाने वाले हैं , अपना खेल दिखाने वाले हैं , हंस हंस कर रुलाने वाले हैं , रो रो कर भी हंसाने वाले हैं , रेवड़ियां खरीद कर लाने वाले हैं , दूर से सबको दिखाने वाले हैं , खुद ही सारी खाने वाले हैं , रहते अंग्रेजी शहर में साल भर घर अब वापस आने वाले हैं , हिंदी को बहलाने वाले हैं।

    छोटा हमें बतायेंगे वो , अपना रौब जमायेंगे वो , नई किताबें लायेंगे वो , फिर सम्मान-पुरुस्कार पायेंगे वो , हिंदी हिंदी इक रोज़ गायेंगे वो , भाषा को बचायेंगे वो , महत्व मात्र भाषा का औरों को समझायेंगे वो , खुद नहीं अपनायेंगे वो , व्यथा अपनी सुनायेंगे वो , नहीं यहां रह पायेंगे वो , बस आयेंगे और जायेंगे वो।
किताब हम भी कोई छपवाते , समीक्षा मित्रों से लिखवाते , बार-बार विमोचन करवाते , काश राजधानी को जाते , किसी प्रकाशक को भी मनाते , बिना मोल जब कोई न छपता कीमत देकर खुद छपवाते , तब जुगाड़ कोई भिड़वाते , खबर अख़बारों में छपवाते , कोई पुरुस्कार झटक कर लाते , खुद ही उसका मोल चुकाते , और फिर पाकर के इतराते।

    कुछ दिन की हैं बातें सारी , खत्म नहीं होती कभी ये बीमारी , कल उनकी आज अपनी बारी , हम खेलेंगे अपनी बारी , कुर्सी जब मिल गई सरकारी , थे जो कल तलक दरबारी , वही बने हैं आज अधिकारी , है पैसे की मारा मारी , बना है लेखक भी व्योपारी। मिल कर जीजा मिल कर साला , लाएंगे इक नया उजाला , तुमने अब तक हमको पाला , अब हमने तुमको संभाला , लगा हुआ था घर पर ताला , साफ होगा अब सारा जाला , तुम भी इसको पढ़ लो खाला , भैंस बराबर आखर काला , देख के मछली जाल है डाला , बहता है बरसाती नाला। गीत विदेशी भाषा के जो गायें , फिर उन्हीं को मुख्य-अतिथि बनायें , जो दे जायें सब खा जायें , लिख-लिखवा कर जो ले आयें , उसको पढ़ते नहीं घबरायें , सबको भाषण से बहलाएं , शब्द अंग्रेजी के दोहरायें , जब समझ हिंदी को न पायें , जिनको हमने पाल अब तक वही हमीं पर गुर्रायें , उनकी बातें समझ न पाएं , फिर भी ताली खूब बजायें , जो खुद सभा में देर से आयें , समय बहुमूल्य हमको बतायें , पहले आयें -पहले पायें।

              हर वर्ष वही तमाशा , न अधिक तोला न कम माशा , जाने है ये कैसी आशा , जो लगती जैसे निराशा , हिंदी का पेट है खाली लिखने से नहीं मिलती रोटी , उनको लगती है बताशा , हैं जो चौसर के खिलाड़ी  , जीत लेते वो हर पासा। अपने भी हालात अब बदलें , हिंदी के दिन रात अब बदलें , दुनिया बदली हम भी बदलें कभी दिल के जज़्बात अब बदलें , खाली बातों से नहीं कुछ हासिल अपनी हर इक बात अब बदलें , गीत भी अपना हो धुन भी अपनी , कुछ अपनी आवाज़ अब बदलें।

                बिन माँ-बाप की बेटी है हिंदी , अंग्रेजी संग ब्याह रचाया , बनी रही इक अबला नारी , पति को परमेश्वर जो बनाया , हाथ जोड़ खड़ी है रहती , कुछ भी फिर भी हाथ न आया , भीख ही मिलती बस कहने को , नहीं कभी अधिकार को पाया , नहीं सरस्वती मां की कद्र कोई भी , कहने को है दीप जलाया , घर दफ्तर में लक्ष्मी की पूजा करना , सभी को यही है भाया , सरस्वती पुत्र दर दर खाते ठोकर , कैसी है प्रभु की माया , चलो वही तस्वीर सजायें , इक दिन हिंदी का है आया , लेकिन अब इसको भूल न जाना , किस खातिर है ये दिन मनाया। फिर से सबका गुरूर हो हिंदी , चाहत का सिंधूर हो हिंदी , परचम बने आंचल हिंदी का अब , हिंदी चमके बनकर देश के माथे की बिंदी।

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