दिसंबर 08, 2014

POST : 471 रिश्तों की डोरी ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

   रिश्तों की डोरी ( कविता ) डॉ  लोक सेतिया 

कभी देखा है
धागे जब उलझ जाते हैं
बहुत कठिन हो जाता है
उनको बचाकर अलग करना
ज़रा सा खींचा कोई धागा
टूट जाता है पल भर में
इक थोड़ा सा खींचने भर से ।

जीवन में रिश्ते नाते सभी
रहते हैं इक साथ ऐसे ही
हम सभी के अपने ही हाथों में
खोना नहीं चाहते हैं किसी को भी
मगर ज़रा सी भूल से हो जाता है
अक्सर ऐसा भी हम सभी से।

कोई इक रिश्ता उलझ जाता है
अपने किसी दूसरे रिश्ते से अचानक
नहीं आता सभी को ये काम
हर रिश्ते नाते को बचाकर रखना ।

मिलना जाकर किसी दिन इक बुनकर से
देखना उसको बुनते हुए धागों से
कितने रंग वाले कैसे कैसे होते हैं
सब को अपनी जगह पर रखता
सब को उतना ही कसता जितना ज़रूरी
सभी में रखता है थोड़ी थोड़ी सी दूरी ।

कोई धागा नहीं उलझने देता वो
टूटने नहीं देता इक भी धागा
और कभी कोई टूट भी जाता है
थोड़ा अधिक खींचने से अचानक
तब उसको अलग रखता दूसरे धागों से ।

गांठ नहीं लगता है कभी बुनकर
प्यार से उसी धागे के दोनों सिरे
फिर से मिला देता उनको कैसे
कभी टूटा ही नहीं था वो जैसे ।

दोस्तो सीखना सभी बुनकर से
प्यार मुहब्बत दोस्ती वाले सब रिश्ते
कैसे रखने हैं सभी हमने संभाल कर ।

और उस से बुनना है अपना जीवन
किसी खूबसूरत चादर की तरह
जिस में मिलकर हर धागा देता है
बहुत ही सुंदर शक्ल । 
 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें