जीवन की पहचान ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
कभी सोचा हैकभी जाना है
खुद को कब
पहचाना है ।
ये टेड़ी सीधी
जीवन की राहें
जाती हैं किधर
किधर जाना है ।
खुद को खिलाड़ी
समझने वालो
कोई खेल रहा है
और खेलते जाना है ।
तकदीर का लिखा
न जनता कोई भी
लकीरें हैं पानी पे
बस उसको मिटाना है ।
इक नाटक है ज़िंदगी
किरदार सभी इसमें
जब तक हैं पर्दे पर
किरदार निभाना है ।
औरों से शिकवा
खुद से गिला करना
हासिल नहीं कुछ भी
झूठा ही बहाना है ।
जीने का तरीका
केवल है इतना ही
खोना है खुद को जब
तब ही सब पाना है ।
Sundar kvita
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