सितंबर 12, 2014

POST : 452 जीवन की पहचान ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

         जीवन की पहचान ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कभी सोचा है
कभी जाना है
खुद को कब
पहचाना है ।

ये टेड़ी सीधी
जीवन की राहें
जाती हैं किधर
किधर जाना है ।

खुद को खिलाड़ी
समझने वालो
कोई खेल रहा है
और खेलते जाना है ।

तकदीर का लिखा
न जनता कोई भी
लकीरें हैं पानी पे
बस उसको मिटाना है ।

इक नाटक है ज़िंदगी
किरदार सभी इसमें
जब तक हैं पर्दे पर
किरदार निभाना है ।

औरों से शिकवा
खुद से गिला करना
हासिल नहीं कुछ भी
झूठा ही बहाना है ।

जीने का तरीका
केवल है इतना ही
खोना है खुद को जब
तब ही सब पाना है । 
 

 

1 टिप्पणी: