मई 19, 2014

POST : 443 दर्द-ए-ग़ज़ल ( एक खत ग़ज़ल का ) { तीरे-नज़र } डा लोक सेतिया

 दर्द-ए-ग़ज़ल ( एक खत ग़ज़ल का ) { तीरे-नज़र } डा लोक सेतिया

मुझे चाहने वालो , मेरा सलाम। तुम मुझे बेहद चाहते हो , मेरे दीवाने हैं दुनिया भर में तमाम लोग। मुझे नाज़ है उन सब पर जिनको इश्क़ है मुझसे। मगर जाने क्यों ये कुछ नासमझ लोग मेरे साथ इक खिलवाड़ करने लगे हैं। और कहते हैं कि मेरे चाहने वाले हैं। मैं बेहद नाज़ुक हूं , मेरी सुंदरता मेरे स्वभाव की कोमलता , हर बात कहने के मेरे अपने सलीके और सभी को लुभाने वाले मेरे अंदाज़-ए-बयां में है। मेरे रंग रूप को जैसे चाहो वैसे बदलोगे तो मेरी सारी कशिश ही समाप्त हो जायेगी। मेरे साथ इस तरह छेड़खानी करने वाले मेरा नाम ही बदनाम कर देंगे। मैं तो उन शायरों की विरासत हूं जिन्होंने पूरी उम्र साधना करके मुझे सजाया , संवारा और निखारा है। मगर आजकल तो मुझे जाने समझे बिना ही हर कोई दावा करने लगा है कि मैं उसी की हूं। इनमें से कितने तो इतना भी नहीं जानते कि मेरा नाम ग़ज़ल क्यों रखा गया है , वे क्या मुझे समझेंगे और कैसे मुझे अपना बनायेंगे। हमेशा से मैं सभी का दर्द बयां करने का माध्यम रही हूं , मगर आज मुझे कोई नहीं नज़र आता जो मेरे दिल का दर्द दुनिया को बता सके। मैं किसके पास जाऊं इंसाफ मांगने , है कोई मुंसिफ जो उनको सज़ा दे सकता हो जो खेल रहे हैं मेरी अस्मत के साथ बार बार। मुझे क़त्ल करने वाले , मुझे खून के आंसू रुलाने वाले खुद को शायर बता रहे हैं। ये देख मुझ पर क्या बीतती है कौन समझेगा। इस खत से पहले भी मैंने कुछ खत लिखे थे उन शायरों के नाम जिन्होंने मुझसे मुहब्बत ही नहीं की , जो तमाम उम्र मेरी इबादत करते रहे।ग़ालिब , दाग़ , जिगर जैसे मुझे दिलो जान से चाहने वाले लोग। उन लोगों ने कभी भी मेरी नफासत को दरकिनार नहीं किया , मेरी खुशबू को मेरे मिजाज़ को हमेशा बचाये रखा। वो जानते थे बेहद नाज़ुक हूं मैं , छूने भर से मुरझा सकती हूं , उन्होंने मेरा एहसास अपनी रग रग में , अपनी हर सांस में भर लिया था। काश मुझे चाहने वाले वो शायर आज फिर से आ जायें और मैं खुद को उनकी आगोश में छिपा लूं।

                        ये खत भेजा है ग़ज़ल ने मुझे , मेरे नाम अपने सभी चाहने वालों के नाम। इस पर कोई नाम नहीं लिखा हुआ है , ये सभी ग़ज़ल को चाहने वालों के नाम है इक संदेश। पढ़कर परेशान हो गया हूं मैं , करूं तो क्या करूं , ग़ज़ल के इस दर्द को जाकर किसको समझाऊं और किस तरह। आज के लिखने वाले तो बड़े ही बेदर्द हो गये हैं।
"ग़म ज़माने के लिखते रहे उम्र भर , खुद जो एहसास-ए-ग़म से भी अनजान थे"।
हमसे कई बार भूल हो जाती है , जिसको फूल सा कोमल मान लेते हैं वो पत्थर सा कठोर होता है। आशिक़ भी प्यार में जब प्रेमिका को ग़ज़ल नाम दे बैठते हैं तो बाद में पछताते हैं जब उनकी कविता का रूप पहले सा नहीं रहता।

        "खुद ग़ज़ल हैं वो हमारे दिल की , क्या भला और सुनायें उनको"।

ग़ज़लकार ये अनर्थ कर बैठते हैं , अपनी महबूबा को ग़ज़ल नाम देना अर्थात उसको महफ़िल के हवाले कर देना। हर कोई उसकी तारीफ करे और उसको चाहने लगे ये देख कर खुद जलन होने लगती है। हर कोई समझता है उसी का अधिकार है ग़ज़ल पर बाकी तो कहने को ग़ज़ल कह रहे हैं। ग़ज़ल इक खूबसूरत ख़्वाब है। शायर हर बार सोचता है कि आज जो ग़ज़ल सुनाने जा रहा है वो लाजवाब है , मगर मुशायरे में सुनाने के बाद फिर सोचता है अगली ग़ज़ल ऐसी शानदार लिखेगा कि सब वाह वाह कर उठेंगे। ग़ज़ल का अंदाज़ कहां सभी को आता है , तभी तो कहा था ग़ालिब ने कि , है ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयां और।

                 मैंने भी अपने दिल में ग़ज़ल की इक दिलकश सी तस्वीर बना राखी थी। आज जब मेरे सामने आई तो देख कर हैरान हो गया हूं , मैंने पूछा था ग़ज़ल से ये क्या हाल बना रखा है तुमने प्रिय। सुन कर रोने लगी थी अपनी दुर्दशा पर। बोली , देख लो छापने वाले ने मेरी कैसे दुर्गति की है , इससे तो बेहतर होता बिना छापे लिखने वाले को वापस ही भेज देता। इस तरह छपा देख कर मुझे लिखने वाले के दिल पर क्या बीत रही है ये वही जानता है या मैं समझती हूं। उस पर ये प्रकाशक मानता होगा कि उसने कोई उपकार किया है छाप कर। उसके लिये ग़ज़ल में या कुछ और छापने में कोई अंतर नहीं है , उसको किसी तरह जगह भरनी है , कुछ भी परोसना है पढ़ने वालों को। ग़ज़ल कहने लगी आजकल ग़ज़ल संध्या के नाम पर तमाशा किया जाता है , गाने वाले ऐसे गाते हैं कि वो सहम कर रह जाती है। ये गायक इतना भी नहीं जानते कि मुहब्बत या इबादत और बात है और किसी को ज़बरदस्ती अपना बनाना दूसरी बात। इक दर्द ये भी है ग़ज़ल का कि सभाओं में उसके शेरों को गलत ढंग से सुनाया जाता है बिना उसका अर्थ जाने , तालियां बटोरने के लिये। शायरी का ये क़त्ल उससे देखा नहीं जाता। बड़ा ही अनाचार होने लगा आजकल ग़ज़ल के साथ , उसपर हो रहे ज़ुल्म की शिकायत मैं जाकर किस से करूं। कौन उसको बचाये उनसे जो ग़ज़ल की आबरू तार तार करने पर तुले हैं। ग़ज़ल को बचा लो , कहीं बेमौत न मर जाये ग़ज़ल। कर सको तो ग़ज़ल के इस दर्द को आप भी दिल की गहराई से महसूस करो। आपकी पलकों पर अगर दो आंसू आ जायें ग़ज़ल का दर्द सुनकर तो समझना कि आप भी शामिल हैं ग़ज़ल के चाहने वालों में। 
 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें