ज़िंदा मुर्दा ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया
एक सरकारी अस्प्ताल में एक डॉक्टर और एक नर्स को निलम्बित कर दिया गया । क्योंकि उन्होंने इक ज़िंदा आदमी को मरा हुआ घोषित कर दिया था । बुद्धिजीवी लोग तो हमेशा से ये कहते रहे हैं कि जो व्यक्ति सब कुछ देख कर भी अपने स्वार्थ के लिये या डर के मारे चुप रहता है और बुराई का विरोध नहीं करता वो जीवित होते हुए भी मरा हुआ ही है । अब उनकी बात को सच मान लें तो देश में बहुमत ऐसे ही लोगों का है जो जीते जी मर चुके हैं । राजनीति में जिनको हाशिये पर धकेल दिया जाता है उन नेताओं की किसी को खबर नहीं होती कि कभी जिसकी जय - जयकार किया करते थे वो हैं भी कि स्वर्ग सिधार चुके हैं । राजनेताओं को सब से बड़ी इच्छा यही होती है कि उनको मौत सत्ता में रहते हुए कुर्सी पर ही आये ताकि उनका मातम पूरी शान से मनाया जाये ।हम ये खबर बहुत बार बहुत कलाकारों के बारे पढ़ चुके हैं कि अपने युग का कोई महान अभिनेता अपने जीवन के अंतिम समय गुमनामी और मुफलिसी में दिन काटता रहा । ऐसे में उन डॉक्टर और नर्स को कोई लावारिस अगर मरा हुआ लगा तो इसमें हंगामा बरपाने जैसी कोई बात नहीं थी । ज़िंदा होना ही ज़िंदगी नहीं होता । शायरी में ये आम सी बात है , आशिक प्रेमिका की बेवफाई से खुद को मरा हुआ बताते हैं । ज़िंदा हूं इस तरह कि ग़म-ए-ज़िंदगी नहीं , जलता हुआ दिया हूं मगर रौशनी नहीं । अगर रूठी हुई प्रेमिका मान जाये तो फिर से जान में जान आ जाती है । हमने तो सुना है जीना मरना बस इक सपने की तरह है , आत्मा अजर अमर है वो केवल शरीर रूपी वस्त्र बदल लेती है । वे दोनों शायद यही कामना कर रहे थे कि इसको नया शरीर मिल जाये । असल में किसी नर्स को किसी को मृत घोषित करने का अधिकार नहीं होता । शायद उसका दोष ये था कि वो मरीज़ को इतनी ज़रा सी बात नहीं समझा पाई कि जब डॉक्टर साहब कह रहे हैं कि तुम ज़िंदा नहीं हो तो तुमको उनकी बात मान खुद ही मर जाना चाहिये । अक्सर मरीज़ नर्स की प्यार से कही बात मान लिया करते हैं ।
यूं ऐसे भी बहुत सारे लोग हैं जिनको उनके अपनों ने ही मृत साबित कर दिया उनके नाम की जायदाद की वसीयत अपने नाम करवा कर बेचने के लिये । आजकल बैंक वाले ये प्रमाणपत्र लाने को कहते है कि मैं जीवित हूं , तभी पैंशन मिलती है । खुद डॉक्टरों को अपना पंजीकरण का नवीनीकरण ऐसा प्रमाणपत्र देकर करवाना होता है पांच वर्ष बाद । मैंने एक चाय की दुकान वाले को भी कितने लोगों को मरा हुआ घोषित करते देखा । कमाल का ढंग था उसका , उसकी ये आदत थी कि जो कोई चाय पी कर अपना बकाया नहीं चुका रहा हो बहुत दिनों से , सब के सामने उसके हिसाब के पन्ने पर लिख देता ये मर गया है । जब उसको पता चलता तब शर्मसार हो कर वो खुद पैसे दे जाया करता । लेकिन ये तीस साल पुराने युग में होता था , आजकल तो लोग शहर भर से कर्ज़ा लेकर रफूचक्कर हो जाते हैं । लोग सोचते शायद कर्ज़ों से तंग आ उसने ख़ुदकुशी कर ली है जबकि वो दूर किसी शहर में ठाठ बाठ से शान से जी रहा होता है ।
ये मौत का फलसफा बड़ा ही अजीब है । कोई मरने की दुआ मांगता है लेकिन मौत नहीं आती तो कोई जानता है अब नहीं बच सकता मगर जीना चाहता है । किसी शायर ने तो कहा भी है ' मांगने से जो मौत मिल जाती कौन जीता इस ज़माने में ' । सच ये भी है कि लोग मौत के डर से जी ही नहीं रहे , रोज़ ही मरते हैं । चचा ग़ालिब भी कह गये हैं ' मौत का एक दिन मुईयन है , नींद क्यों रात भर नहीं आती ' । एक और शायर ये कहता है ' मौत है एक लफ्ज़-ए-बेमानी , जिसको मारा हयात ने मारा ' । शायर दुष्यंत कुमार कहते हैं ' आप बचकर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं , रहगुज़र घेरे हुए मुर्दे खड़े हैं बेशुमार ।
लोग जीते हुए भी मृत समान हैं यदि वो सही को सही व गलत को गलत नही कहते तो...डॉक्टर नर्स जिंदों को मुर्दा ओर मुर्दो को वेंटिलेटर पर रख जीवित बता सकते हैं
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