जनवरी 07, 2014

POST : 397 कविता की बात ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

      कविता की बात ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

हमने पहले से ही तय कर लिया था कि अगर कभी भी हम प्यार करेंगे तो सिर्फ कविता से करेंगे। जब हम कवि हैं तो हमारी कविता भी होनी चाहिये कोई , जिसे दिलोजान से प्यार करें उम्र भर हम। मगर हमारे नसीब में लिखा ही नहीं था किसी कविता नाम की लड़की से कभी मुलाकात करना। फिर भी ये शब्द हमें अपना सा लगता था और हम हमेशा यही सोचा करते थे कि अगर हमें कोई कविता नहीं मिलेगी तब हम जो भी मिलेगी विवाह के बाद उसका नाम कविता रख लेंगे। अफसोस न कोई कविता नाम वाली मिली न हमने कभी इश्क़ किया। समझा जाता है कि इश्क़ में आशिक को अच्छी कविता लिखना खुद ब खुद आ जाता है। लेकिन जब हमारे विवाह की बात चली तो और हमें बताया गया कि कन्या का नाम कविता है तो हमने देखे बिना ही हामी भर दी। अब जिसका नाम कविता है उसे देखने की क्या ज़रूरत , सोच लिया उम्र भर कविता को ही देखेंगे , कविता ही पढ़ा करेंगे , लिखते तो पहले से ही हैं। शादी का शुभ महूर्त निकालते समय पंडित जी कहने लगे कि कविता नाम तुम पर बहुत भारी पड़ सकता है इसे बदलना ही उचित है , हमने कहा कि ऐसा है तो ग़ज़ल नाम रख देते हैं , मगर ये भी उनको नहीं जचा तो हमने कह दिया कि फिर हमारा नाम बदल कर कविता के हिसाब से रख दो। ये सुन कर हंस दिये सभी कि भला ऐसा कहीं होता है , लेकिन हमने कविता को कविता ही रहने देने की ज़िद ठान ली और नाम को नहीं बदलने दिया। इस तरह हमने अपनी ख़ुशी से शादी कर ली कविता नाम की लड़की के साथ। और बहुत जल्द हमें कविता कविता में ज़मीन आसमान का अंतर नज़र आने लगा , साथ ही इस बात का अर्थ भी समझ आने लगा कि एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं समा सकती। पर अब हमें तो तमाम उम्र दोनों कविताओं को साथ रखना ही था।

                                    इधर जब से हमें बुलावा आया है कवि सम्मलेन में कविता सुनाने का तब फिर से खुद के कवि होने का यकीन होने लगा है , अन्यथा श्रीमती जी की बातों को मान हमने भी सोच लिया था कि हम जो लिखते हैं वो बेकार की तुकबंदी के सिवा कुछ भी नहीं है। यूं भी पत्नी होने के नाते हमारी कविताओं को बिना पढ़े , बिना सुने ही रद्द करने का उनका विशेषाधिकार है। जब सुहागरात को ही हमने उनको अपनी कविता सुनाई थी जो उनके नाम लिखी थी हमने तभी उन्होंने तय कर लिया था कि कैसा बर्ताव अपनी सौतन से करना है। बस वही पहली और आखिरी बार हमारी कविता सुनी थी श्रीमती जी ने। बहुत कोशिश की मगर कविता जी को कविता कभी पसंद नहीं आ सकी। हमने उनकी तारीफ में भी लिखी कविता , मगर उनको वो तारीफ भी फीकी ही लगी , हम हार गये इस प्रयास में आखिर। एक बार यूं ही भूले से कह बैठे कि आग लगा सकती है ये कविता तो वे बोलीं देखेंगी किसी दिन चूल्हे में डालकर। तब से हमने उनको अपनी कविताओं से और अपनी कविताओं को उनसे फासले पर रखना लाज़मी समझा है। अब उनको भी तसल्ली है कि बच गई हैं मेरी कवितायें सुनने से। हमें इस बात का अफ़सोस रहता था कि हमारे फन की कद्र नहीं जानती हैं। जब कभी घर आ कर बताते कि दोस्तों ने कविता सुन बड़ी दाद दी , तब उनका कहना होता कि ज़रूर उनको कुछ मतलब होगा , तभी खुश करना चाहते हैं आपको।श्रीमती जी को यकीन ही नहीं बल्कि उनका दावा है कि जो वो मानती हैं या कहती हैं वही सब से बड़ा सत्य है और बाकी सब कुछ मिथ्या है। एक दिन जब बाहर से घर आये तो देखा कि जिन कागज़ों पर हमारी कवितायें लिखी हुई हैं वो नीचे फर्श पर बिखरी पड़ी हैं। पूछने पर जवाब मिला कि तुमने ही बोला था घर की साफ सफाई के लिये , इसलिये कबाड़ी को बुलाया था फालतू का सामान बेचने के लिये। सब खरीद कर ले गया लेकिन इन स्याही से लिखे कागज़ों को उसने अखबार की रद्दी के भाव भी लेने से इनकार कर दिया। देख लो इन कविताओं को ढाई रुपये किलो भी नहीं खरीदा उसने। हमने शुक्र मनाया कि बाल बाल बच गये और अपनी कविताओं को समेट कर अलमारी में रख ताला लगा दिया। लेकिन जब से हमने अपनी रचनायें पत्र पत्रिकाओं में भेजना शुरू किया और वो छपने लगी तब से श्रीमती जी के तेवर थोड़ा नर्म होने लगे थे। जब पहली बार किसी कवि सम्मेलन का बुलावा आया तो श्रीमती जी कहने लगी वहां सफेद कुर्ता पायजामा पहन कर मत जाओ , लोग सुना है अंडे टमाटर साथ लाते हैं फैंकने को। मगर हम नहीं माने थे , और जब सही सलामत घर वापस आये तो अपना कुर्ता उतार कर उनके हाथ में पकड़ा कर कहा कि देख लो कोई दाग़ नहीं लगने दिया इसपर हमने। श्रीमती जी आदत से मज़बूर कुर्ते की जेब को टटोलने लगी , और उसमें से एक लिफाफा निकाल बोली ये क्या है। हमने कहा , याद आया ये कवि सम्मेलन के आयोजकों ने दिया था ये कह कर कि सम्मान पूर्वक दे रहे हैं। श्रीमती बोली कि इसमें है क्या , हमने कहा कि हमने देखा नहीं आप ही देख लो क्या डाला हुआ है। उन्होंने देखा तो ढाई सौ रुपये निकले , मगर श्रीमती जी ये मानने को हर्गिज़ तैयार नहीं कि जिस रद्दी को कबाड़ी ढाई रुपये किलो भी लेने को नहीं माना था उसके दो पन्नों को पढ़ कर सुनाने पर कोई ढाई सौ रुपये दे देगा। हमने कहा ये आपके लिये हैं तो खुश होकर पैसे रखने के बाद भी उनका मानना है कि ये खुद हमने अपनी जेब में रखे होंगे उनको खुश करने के लिये। और जैसा सदा वे समझती हैं जो वो मानती हैं वही सच है। हम तो बस मन ही मन सोचते रह जाते हैं कि काश कविता जी कभी कविता का मोल समझ पाती। ये इक कविता की बात है और दूजी कविता का दर्द भी। 

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