मार्च 19, 2013

POST : 316 ये कैसे समझदार होने लगे सब ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ये कैसे समझदार होने लगे सब ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ये कैसे समझदार  होने लगे सब
दिया छोड़ हंसना  हैं  रोने लगे सब ।

तिजारत समझ कर मुहब्बत हैं करते 
जो था पास उसको भी खोने लगे सब ।

किसी को किसी का भरोसा कहां है
यहां नाख़ुदा बन डुबोने लगे सब ।

सुनानी थी जिनको भी हमने कहानी 
शुरुआत होते ही सोने लगे सब ।

खुले आस्मां के चमकते सितारे 
नई दुल्हनों के बिछौने लगे सब ।

जिन्होंने हमेशा किए ज़ुल्म सब पर
मिला दर्द पलकें भिगोने लगे सब ।

ज़माने से "तनहा" शिकायत नहीं है
थे अपने मगर गैर होने लगे सब । 
 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें