फ़रवरी 20, 2013

POST : 301 ज़रा सोचना , सोचकर फिर बताना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ज़रा सोचना , सोचकर फिर बताना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ज़रा सोचना सोचकर फिर बताना
हुआ है किसी का कभी भी ज़माना ।

इसी को तो कहते सभी लोग फैशन
यही कल नया था हुआ अब पुराना ।

उसी को पता है किया इश्क़ जिसने
कि होता है कैसा ये मौसम सुहाना ।

मेरी कब्र इक दिन बनेगी वहीं पर
मुझे घर जहां पर कभी था बनाना ।

सभी दोस्त आए बचाने हमें थे
लगाते रहे पर हमीं पर निशाना ।

उठा दर्द सीने में फिर से वही है
वही धुन हमें आज फिर तुम सुनाना ।

रहा सोचता रात भर आज "तनहा"
है रूठा हुआ कौन  किसने मनाना । 
 

 

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