जनवरी 13, 2013

POST : 280 वो भी जीता रहा ज़िंदगी के बिना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

वो भी जीता रहा ज़िंदगी के बिना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

वो भी जीता रहा ज़िंदगी के बिना
हम भी जलते रहे रौशनी के बिना ।

उनसे हम बात करते भला और क्या
कुछ भी आता नहीं आशिकी के बिना ।

बात महफ़िल में होने लगी होश की
कुछ न आया मज़ा बेखुदी के बिना ।

जब कभी हम मिलें , उस हसीं रात में
आ भी जाना वहां , तुम घड़ी के बिना ।

एक दिन  सामने   दे दिखाई खुदा
यूं ही "तनहा" मगर बंदगी के बिना ।
 

 

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