ज़ुल्म भी हंस के वो तो सहते हैं ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया
ज़ुल्म भी हंस के वो तो सहते हैंलोग कैसे जहां में रहते हैं ।
कत्ल करते हैं वो जिसे चाहा
इसको जम्हूरियत वो कहते हैं ।
ख़्वाब यूं टूटते हैं जनता के
रेत के ज्यों घरोंदे ढहते हैं ।
कत्ल करते हैं वो जिसे चाहा
इसको जम्हूरियत वो कहते हैं ।
ख़्वाब यूं टूटते हैं जनता के
रेत के ज्यों घरोंदे ढहते हैं ।
वो मगरमच्छ हैं , कि हैं नेता
अश्क़ जिनके जो बस यूं बहते हैं ।
' लोक ' अब तो यही सियासत है
दुश्मनों को जो दोस्त कहते हैं ।
बढ़िया अशआर
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