सितंबर 01, 2012

POST : 106 शून्यालाप ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    शून्यालाप ( कविता ) डॉ  लोक सेतिया 

अंतिम पहर जीवन का
समाप्त हुआ अब बनवास
त्याग कर बंधन सारे
चल देना है अनायास
राह नहीं कुछ चाह नहीं
समाप्त हुआ वार्तालाप ।

विलीन हो रही आस्था
टूट रहा हर विश्वास
तम ने निगल लिया सूरज
जाने कैसा है अभिशाप ।

फैला है रेत का सागर
जल रहा तन मन आज
शब्द स्तुति के सब बिसरे
छूट गया प्रभु का साथ ।

मनाया उम्र भर तुमको
माने न तुम कभी मगर
खो जाना एक शून्य में
बनाना है शून्य को वास ।

अब खोजना नहीं किसी को
न आराधना की है आस
करना है समाप्त अब
खुद से खुद का भी साथ ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें