अगस्त 22, 2012

POST : 72 राही नई पुरानी उसी रहगुज़र के हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

        राही नई पुरानी उसी रहगुज़र के हैं ( ग़ज़ल ) 

                            डॉ लोक सेतिया "तनहा"

राही नई पुरानी उसी रहगुज़र के हैं
जिस पर निशान गालिबो दाग़ो जिगर के हैं ।

जाने कहां कहां के हमें जानते हैं लोग
हमको तो ये गुमां था कि तेरे नगर के हैं ।

वो काफिले तो जानिबे मंज़िल चले गये 
बाकी रही है गर्द वहां हम जिधर के हैं ।

मिलते हैं अजनबी की तरह लोग किसलिये 
हम सब तो रहने वाले उसी एक घर के हैं ।

ये दर्दो ग़म भी खुद को करें किस तरह जुदा
रिश्ते हमारे इनसे तो शामो - सहर के हैं । 
 
साहिल की रेत को भी भला इसकी क्या खबर 
बिखरे पड़े हैं जो ये महल किस बशर के हैं । 
 
सुनसान शहर सारा अंधेरा गली गली
थोड़ा जिधर उजाला है "तनहा" उधर के हैं । 

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