जुलाई 11, 2012

POST : 09 साया ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

   साया ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

पी लेता हूं 
यूं तो अक्सर
ज़िंदगी का
मैं ज़हर ।

जाने क्यों
फिर भी कभी
भर आती हैं आंखें 
और घुटने
लगता है दम ।

रोकने से
तब रुकते नहीं
आंखों से आंसू
तनहाई में अक्सर ।

मन करता है
जा कर पास तुम्हारे
चुप चाप बैठ कर
जी भर के रो लेने को ।

सोचता हूं 
मैं कभी कभी
अकेले में ये भी
जिसकी तलाश है मुझे 
तुम वही हो कि नहीं ।

भीगी पलकों के
हम दोनों के शायद
इस नाते को कभी
मैं नहीं कोई भी
नाम दे पाया ।

तुम्हें भी
याद आता है कभी
छत के कोने में देर रात तक
राह तकता हुआ
गुमसुम सा
खड़ा कोई साया । 
 

 

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