पचास साल से जारी सफ़र ( 1975 से 2025 ) डॉ लोक सेतिया
आज लगता है बात वहीं से शुरू की जाए जिस दिन ज़िंदगी ने इक राह चुनी थी इक मकसद इक संकल्प का चयन किया था । कुछ पोस्ट पहले लिखता रहा हूं आज ख़ुद को उसी कसौटी पर परखना चाहता हूं , ये समझना कि किस सीमा तक कायम रहा हूं । मुमकिन है कभी पांव डगमगाने लगे हों लेकिन चाहे जैसे भी हों हालात मैंने उस राह को कभी छोड़ा नहीं है । हासिल क्या हुआ कहना ज़रूरी नहीं है क्योंकि ऐसी राहों की कोई निर्धारित मंज़िल कभी नहीं होती है न ही कोई स्वार्थ जुड़ा होता है खुद को अनुभव होता रहता है कि भीड़ नहीं बनकर चला और पांव जमाए रखे हैं कभी फिसलन का शिकार नहीं हुआ । ऐसे में जब तमाम लोग मुझको ही नहीं हर किसी को ऐसी कठिन रास्तों को छोड़ कर आसान राहों को अपनाने की बात करते हैं खुद अपनी मानसिकता अपनी सोच को बनाये रखना संभव हुआ तो बड़े ही संयम और विवेक एवं आत्मविश्वास के सहारे ही । अन्यथा तमाम दुनिया वाले निस्वार्थ सामाजिक समस्याओं की खातिर कोशिश करने और निडरता पूर्वक सही बात कहने और गलत का विरोध खुलकर करने को नासमझी ही नहीं पागलपन समझते हैं । ऐसी राहों पर चलने में कठिनाईयां आती हैं और अधिकांश लोग आपको अकेला छोड़ देते हैं , खुद ही अपनी कश्ती को मझधार और तूफानों से टकराने की कोशिश अंजाम से घबराने नहीं देती है । कभी कभी मन में विचार आते हैं कुछ भी बदलता क्यों नहीं बल्कि और ख़राब हालात दिखाई देते हैं तब मुझे कभी सरिता पत्रिका के संपादक विश्वनाथ जी का भेजा ख़त ध्यान में आकर संबल का कार्य करता है ।
सरिता पत्रिका में इक कॉलम नियमित प्रकाशित हुआ करता था जिस में कहा जाता था कि पढ़ लिख कर आपको अपने लिए नौकरी कारोबार घर बनाने तक सिमित नहीं रहना चाहिए । आपका कर्तव्य है कि जिस समाज से आपको बहुत कुछ मिला है उसको कुछ लौटाना भी ज़रूरी है , और कुछ विकल्प कुछ रास्ते बताये जाते थे कि उन में से कोई भी आपको पसंद है उसी को अपना सकते हैं । ये उन्हीं दिनों की बात है जब लोकनायक जयप्रकाश जी का संपूर्ण क्रांति अंदोलन जारी था , 25 जून 1975 को जेपी जी का भाषण सुनकर , लगा जैसे कोई नई रौशनी बनकर मार्गदर्शन कर गया कि मुझे यही करना है जब भी जहां भी कुछ गलत हो अनुचित हो रहा हो असामाजिक अथवा अलोकतांत्रिक घट रहा हो उसका विरोध करना चाहिए ।
लेकिन करीब बीस साल बाद मैंने किसी क्षण निराश होकर विश्वनाथ जी को पत्र लिख कर डाक द्वारा भेजा , ऐसा कहते हुए की इतने साल से कोशिश करते का नतीजा कुछ भी नहीं दिखाई दिया है । कुछ दिन बाद मुझे उनका भेजा पत्र मिला जिस में लिखा गया था । ' आपने ऊंचाई से पर्वतों से बहते पानी को देखा होगा , तब उस पानी का वेग तेज़ गति से सामने रास्ते में आने वाले पत्थरों को चटानों को काटता हुआ आगे बढ़ता हुआ दिखाई देता है । आपको प्रतीत होगा कि पत्थर चटान कोई रुकावट नहीं डाल पाये और तेज़ धारा में उनका अस्तित्व मिटता गया और वे रेत बन कर रह गए । लेकिन ये सच नहीं है बल्कि उनके अवरोध से पानी का वेग घटकर कम होता गया जिस से वही बहता पानी हमारे लिए उपयोगी साबित हुआ प्यास बुझाने से लेकर ज़मीन में खेती करने के काम आकर । अन्याय भ्र्ष्टाचार भी हमारे विरोध करने के बाद भी जितना बढ़ता गया है अगर कोई विरोध या अवरोध नहीं होता तब कितना विनाशकारी होता '। तब उसके बाद कभी वापस मुड़कर नहीं देखा और किसी अंजाम की परवाह कभी नहीं की है लक्ष्य एक ही है कोशिश करते रहना समाज को बेहतर बनाने को रौशनी बनकर अंधकार मिटाने को दिया बनकर खुद जलना है उम्र भर ।

आप लगातार इतने लंबे समय से जो कार्य करते आ रहे हैं। प्रशंसनीय और प्रेरक है... यह सफर ऐसे ही निरन्तर चलता रहे👍
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