लोकतंत्र के सौदागर ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
संविधान की शपथ को , समाज को शानदार भविष्य देने की सभी बातें को , पीछे छोड़ देश की राजनीति उस जगह खड़ी है जहां रिश्वत लेकर काम करने की तर्ज़ पर सभी दल जनता से खुलेआम सौदा करने लगे हैं । इक होड़ है उस शोरूम से आपको जो प्रलोभन दिया गया है दूसरे मॉल पर उस से बढ़कर कुछ और उपहार मिलेगा । कभी महिलाओं को संसद में आरक्षण देने की बात की जाती थी अभी तक संभव नहीं हुआ लेकिन अब उनको लगता है महिला को कुछ हज़ार मासिक देने की बात से चुनावी नैया पार लग सकती है तो उनको सक्षम बनाने सुरक्षा देने समानता और सर उठा कर बराबरी पर खड़ा करने की आवश्यकता क्या है । वास्तव में महिलाओं का इस ढंग से अनादर ही किया जाने लगा है , शराबी पुरुष कुछ दिन शराब की बोतल से किसी दल की भीड़ बनकर नारे लगाते थे लेकिन वोट मालूम नहीं कब किस तरफ डालते हों भरोसा नहीं होता है । लेकिन अब कुछ सालों से गरीब जनता को और गरीब बनाकर देश की राजनीति ने लोकतंत्र की बोली बीच चौराहे पर लगानी शुरू कर दी है । चुनाव आयोग से सुप्रीम कोर्ट तक लोकतंत्र का चीरहरण होते देख कर महाभारत की कौरवों की सभा की तरह ख़ामोशी से देख रहे हैं । बात कड़वी है लेकिन वास्तविकता है कि राजनेताओं में ज़मीर जैसा कुछ बचा नहीं है ज़मीर बेच दिया या गिरवी रख दिया है बदले में कुछ हासिल करने को । जो लोग बिकते हैं समझते हैं सभी को लालच दे कर कीमत लगा कर बिकने को विवश किया जा सकता है । ऐसे में कोई भी समाज कल्याण की राजनीति की राह पर चलना नहीं चाहता नैतिकता और आदर्श सभी दलों को व्यर्थ प्रतीत होते हैं ।
देशसेवा केवल भाषण देने का विषय है वास्तविक मकसद सत्ता पर बैठ कर करोड़ों रूपये खुद पर खर्च करना हो गया है । ये सभी सांसद विधायक होते समय ही नहीं बल्कि बाद में भी कितने ही विशेषाधिकार पाकर देश के खज़ाने पर इक बोझ बन कर रहते हैं , इतना ही नहीं हर राजनेता के परिवार उनके निधन के बाद भी उनके नाम पर समाधिस्थल और स्मारक बनाने की चाहत रखते हैं भले किसी का कोई विशेष योगदान नहीं भी रहा हो सामाजिक कार्यों को लेकर । महान नायकों का योगदान अपने आप उनको इन सभी से अधिक प्यार आदर और शोहरत दिलवाती है कुछ भी उन्होंने बदले में ये मिलने की खातिर नहीं किया होता है । लिखने वाले हमेशा लिखते थे औरत को हमेशा छला जाता रहा है , प्यार उपहार से लेकर उसे त्याग की देवी कहकर अपने वर्चस्व स्थापित करने की , लेकिन ये तो महिलाओं को और भी हानिकारक साबित हो सकता है जो भविष्व में उसका अस्तित्व पर खतरा है । समाज को अपने स्वाभिमान की खातिर इस को ठुकराना ज़रूरी है ।
लालच ने सभी को अंधा बना दिया है , सरकार से धर्म तक समाजसेवा को भी हर कोई खुदगर्ज़ी की खातिर उपयोग कर रहा है । आसानी से कभी समस्याओं का समाधान नहीं मिलता अपनी ज़िंदगी को सरल बनाने को खुद पर निर्भर होना पड़ता है । उपरवाले ने हमको हाथ पैर ही नहीं विवेक भी दिया है दिमाग़ का उपयोग कर इंसान चांद पर पहुंचा है लेकिन किसी आशिक़ ने कभी अपनी महबूबा को चांद सितारे तोड़ कर उसकी झोली में नहीं भरे हैं । आजकल राजनेता भी छलिया जैसे हैं आपको कुछ भी नहीं देना चाहते बल्कि सभी आपको लोभ लालच के किसी जाल में फंसाकर खुद आसानी से तमाम सुख सुविधाएं हासिल कर शासन करना चाहते हैं । कोई भी मुफ़्त में किसी को कुछ देता नहीं है हम भी किसी की सहायता करते हैं तब भी कोई मतलब छिपा रहता है । दान भी देते हैं तो पापों की क्षमा और पुण्य की कामना रहती है । लगता है महिलाओं को राजनेताओं ने नासमझ समझ कर उपहार धन इत्यादि का जाल फैंका है जिस से सावधान रहना होगा उनको भी हमको भी । इक कविता याद आई है ।
अधूरी प्यास ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
युगों युगों से नारी कोछलता रहा है पुरुष
सिक्कों की झंकार से
कभी कीमती उपहार से
सोने चांदी के गहनों से
कभी मधुर वाणी के वार से ।
सौंपती रही नारी हर बार ,
तन मन अपना कर विश्वास
नारी को प्रसन्न करना
नहीं था सदा पुरुष की चाहत ।
अक्सर किया गया ऐसा
अपना वर्चस्व स्थापित करने को
अपना आधिपत्य
कायम रखने के लिये ।
मुझे पाने के लिये
तुमने भी किया वही सब
हासिल करने के लिये
देने के लिये नहीं
मैंने सर्वस्व समर्पित कर दिया तुम्हें ।
तुम नहीं कर सके ,
खुद को अर्पित कभी भी मुझे
जब भी दिया कुछ तुमने
करवाया उपकार करने का भी
एहसास मुझको और मुझसे
पाते रहे सब कुछ मान कर अपना अधिकार ।
समझा जिसको प्यार का बंधन
और जन्म जन्म का रिश्ता
वो बन गया है एक बोझ आज
मिट गई मेरी पहचान
खो गया है मेरा अस्तित्व ।
अब छटपटा रही हूँ मैं
पिंजरे में बंद परिंदे सी
एक मृगतृष्णा था शायद
तुम्हारा प्यार मेरे लिये
है अधूरी प्यास
नारी का जीवन शायद ।