मई 09, 2021

मैंने जान लिया है राज़ क्या है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   मैंने जान लिया है राज़ क्या है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

  जो लोग फेसबुक पर नहीं हैं उनके अपने उनको भूल जाते हैं अन्यथा उनका भी जन्म दिन वर्षगांठ विवाह की उत्सव जैसा दिखाई देता ये समझ आया तो ढूंढ ढूंढ दोस्त बनाने लगे जिनको हमारी याद नहीं आती मुद्दत हुई। बाकी कुछ नहीं रहेगा बस इक इसी का नाम हमेशा रहेगा। भगवान की नहीं बात फेसबुक की है। दस साल से भटकता रहा नहीं जान पाया ये क्या सिलसिला है कैसा माजरा है। कब कहां क्या हुआ इक इसी को पता है जो नहीं जानता ये उसी की खता है। दोस्त रिश्ते नाते सभी निभ रहे हैं जहां पर हम रह गए थे ज़मीं पर सब जा पहुंचे आस्मां पर। फेसबुक बगैर हम अजनबी हो गए थे आदमी सब थे जितने खुद नबी ( पैगंबर ) हो गए थे। होश आया तो जाना बस यही है इक यही है इसके बिना दोस्ती कुछ नहीं है ज़िंदगी कुछ नहीं सब होकर भी आदमी कुछ नहीं है। सबका घर है यहां पर हर खबर है यहां पर लोग मिलते यहीं हैं और जाएं भी कहां पर। कीमत समझ आती है हर चीज़ की मगर वक़्त आने पर लोग मिलते थे कभी मंदिर में मिलते हैं अब शराबखाने पर। चौपाल लगती नहीं पीपल तले गांव में बात पहुंचती है पुलिस थाने तक हमको मालूम है तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक। लोग चले गए दुनिया से रुखसत होकर खबर पहुंची नहीं शाम की सहर से शाम शाम से सहर होने तक। हाल पूछते हैं ठीक होने के बाद हंसते हैं मिलकर रोने के बाद। दुनिया बड़ी है पर सिमट कर स्मार्ट फोन में रह गई है ग़ज़ल कविता कहानी कहीं नहीं मिलती चुटकले की लंबी आयु हो व्हाट्सएप्प वाली देवी कह गई है। 
 
सोशल मीडिया से कोई खुदा बन गया है झूठ सच बन गया फ़लसफ़ा बन गया है। ढूंढते रहे हम पहचान अपनी मिली नहीं और कोई इसी को बनाकर सहारा खुदा बन गया है। तो इस तलाश का अंजाम भी वही निकला , मैं देवता जिसे समझा था आदमी निकला। शायर का नाम भी याद नहीं आता फेसबुक पर जो नहीं उसको तलाश करना आसान नहीं है। इक़बाल साजिद फरमाते हैं , रुखे रौशन का रौशन एक पहलू भी नहीं निकला ,  जिसे मैं चांद समझा था वो जुगनू भी नहीं निकला। इस सपनों की दुनिया का सच यही है जुगनू भी नहीं चांद बन बैठे हैं सूरज के सिंघासन पर घने अंधेरों का डेरा है क्या तेरा है क्या मेरा है ये जोगी वाला फेरा है। कुछ तो निशानी छोड़ जा अपनी कहानी छोड़ जा गीत सुनते थे मगर कैसे हर कोई ताजमहल बनवा नहीं सकता लेकिन कमाल किया है फेसबुक बनाने वाले ने 4 फ़रवरी 2004 को मार्क ज़ुकेरबर्ग ने सभी को अवसर देकर अपना नाम रौशन करने का साधन उपलब्ध करवाकर। लोगों को मौत से बढ़कर चिंता रहती है बाद में उनको लोग याद करेंगे कि भूल जाएंगे। फेसबुक आपकी रहेगी हमेशा अगर आप चाहेंगे।
 
सोशल मीडिया पर एक्टिव होना आपके होने का असली सबूत है ख़ास बात ये भी है कि आपकी मर्ज़ी है चाहो तो दुनिया से जाने के बाद भी फेसबुक पर आप ज़िंदा रह सकते हैं। इस नकली दुनिया ने सभी को भटकाया भी है बहलाया भी और जो किसी किताब ने नहीं पढ़ाया वो समझाया भी। ग़ालिब ने कहा था मस्जिद के जेरे साया घर बना लिया है , ये बंदा ए कमीना हमसाया ए खुदा है। फेसबुक पर आप बड़े नाम वाले नायक खिलाड़ी नेता धर्मगुरु से दुनिया की तमाम जानी मानी हस्तियों के दोस्त बन सकते हैं। धरती पर इतने मंदिर मस्जिद नहीं हैं जितने देवता ईश्वर खुदा मसीहा पीर पय्यमबर इस जगह साक्षात हैं कमेंट में लिखते ही मनोकामना पूर्ण होने का भरोसा दिलाते हैं लोग आपको जिनसे खुद कभी नहीं मिलते मिलवाते हैं। इक यही दुनिया हैं जहां इक साथ जश्न भी मातम भी मनाते हैं बधाई भी मिलती है अफ़सोस भी जताते हैं किसी के घर जाते नहीं न किसी को घर बुलाते हैं फिर भी रिश्ते हर किसी से निभाते नज़र आते हैं। गुलदस्ता मिलता है ख़ास दिन और श्रद्धासुमन भी चढ़ाते हैं लोग इस दुनिया को वास्तविक समझते हैं ख्वाब बुनते हैं दिल को बहलाते हैं लाइक कमेंट की दुनिया का लुत्फ़ उठाकर जिन खोजा तिन पाईया राज़ समझाते हैं।  हमने देखा है समझा है जाना है अब कोई शिकायत नहीं है कोई नहीं बहाना है जिनसे पहचान हैं उनको अपना दोस्त बनाना है फेसबुक वाला याराना ही याराना है। दिल में नहीं सबको दोस्त कितने हैं लिस्ट में नंबर बनाना है। मासूम सी मुहब्बत का बस इतना सा फ़साना है , कागज़ की हवेली है बारिश का ज़माना है। अब कुछ पीछे वापस मुड़कर देखते हैं कितना कुछ बदला है इस सोशल मीडिया के चलन से। 
 
यूं ही कोई मिल गया था सरे राह चलते चलते की तरह इक कहानी मिली लेखक से गुनगुनाती हुई ना उम्र की सीमा हो ना जन्म का हो बंधन जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन। शादी विवाह समाज घर सभी को भूलकर दो आशिक़ अपनी दुनिया में खो गए। अचानक साल भर बाद प्यार से पेट नहीं भरता समझ आया तो चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों। माशूका घर वापस चली गई सुबह की भूली भटकी शाम को लौट आई सबको बताया नौकरी करने गई थी अब शादी करने घर चली आई है। उधर आशिक़ भी अपनी पत्नी को छोड़ महबूबा संग रंगरलियां मना लौट आये थे सब ठीक हो गया चार दिन की चांदनी के बाद। फेसबुक पर स्टेटस मौसम से जल्दी बदल जाता है रिलेशनशिप से विवाहित होने का ऐलान हो गया। लेखक को पहली दास्तां को छोड़कर नई कहानी लिखने को कहा और पुरानी लिखी मिटाने को अनुरोध किया गया। शायद विधि का विधान है कि जल्दी ही पति का निधन हो गया और स्टेटस सिंगल का सामने दिखाई दिया। 
 
चार महीने पहले पति की मौत की खबर की पोस्ट पर संवेदना देने वाले आज फेसबुक पर शादी की वर्षगांठ की मेमरी देख बिना सोचे भूलकर पति की मौत की खबर शुभकामनाएं देने लगे हैं। इधर
 अपने पति से जान से बढ़कर प्यार करने वाली पत्नी जो उसको जाने कितने अच्छे संबोधन देकर बुलाती थी चार महीने बाद मौज मस्ती की झूमती गाती नाचती तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट करती है तो समझना कठिन है कहानी सच्ची थी या काल्पनिक थी।
 

  

कोई टिप्पणी नहीं: