नवंबर 18, 2018

क़यामत आ रही है ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

         क़यामत आ रही है ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

      आखिर उसको आना ही पड़ा , साल पहले देश में चुनाव से पहले दहशत का माहौल बना हुआ था टीवी मीडिया फेसबुक व्हाट्सएप्प सभी पर लगता था 2019 चुनाव नहीं कोई क़यामत आने वाली है। और उस क़यामत से बचने का उपाय बस वही केवल एक वही है जिसके लिए सब मुमकिन है। मगर अब साल बाद वास्तव में क़यामत सामने है तो जो कुछ भी कर सकता है समझते थे वो कुछ भी करना क्या समझ भी नहीं पा रहा है। कयामत आने वाली है जैसे ऐसा शोर है जैसे देश में पहले कभी चुनाव ही नहीं हुए हों। मगर ये शोर मचा वो रहे हैं जिनके लब सिले हुए हैं आंखों पर स्वार्थ की काली पट्टी बंधी हुई है। कहते हैं उनके पास कभी सच बोलने वाली ज़ुबान भी हुआ करती थी और समाज की बात समझने समझाने को ज़मीर नाम का भी कुछ हुआ करता था। विज्ञापन और कारोबार व ताकत हासिल करने को ये दोनों चीज़ें गिरवी रख दी सरकार नेताओं उद्योगपतियों धर्म का धंधा करने वालों और मनोरंजन के नाम पर देश की जनता और दर्शकों को गुमराह करने वालों की टकसालों पर। अब उन सभी का झूठ ऊंचे दाम पर बेचते हैं और मालामाल हो रहे हैं चोर भी और रखवाले भी। चौकीदार शब्द का उपयोग नहीं किया क्योंकि इधर उसका पेटेंट किसी के नाम किया जा चुका है जो वास्तव में चौकीदार है नहीं बनना चाहता भी नहीं था मगर कहलाना चाहता था। अख़बार कभी जागरूकता लाने और देश समाज को आईना दिखाने को निकाला करते थे और पत्रकार खुद को चौकीदार ही मानते थे और जो चोरी घोटाला करता उसका पता लगाना और देश की जनता को सूचना देना अपना फ़र्ज़ समझते थे। आजकल ये खुद को सबसे ऊपर समझते हैं और अपने लिए कोई बंधन कोई नियम नहीं मानते है। इनको भरोसा है या वहम है कि यही सब जानते हैं और कुछ भी कर सकते हैं। रात को दिन दिन को रात बना सकते हैं इनका दावा है। कभी नियम था कि किसी मकसद या स्वार्थ के लिए खबर छापना या छुपाना पीत पत्रकारिता होता है और इक गुनाह है। मगर आज फेक न्यूज़ या इस तरह से तमाम बहस कहानियां बनाकर झूठ को सच बताना इन्हें अनुचित नहीं लगता है। पीलिया रोगी बन चुके हैं और सही गलत की बात छोड़ इक अंधी दौड़ में भाग रहे हैं। आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास।

           लोग हर किसी को जो कोई कहता है नाम दे देते हैं मैं शरीफ आदमी हूं जो कहता है उसको शराफत का तमगा दे देते हैं जबकि शरीफ समझा जाना अर्थात बिना अपराध गुनाह मानने वाला और सज़ा कबूल करने वाला आदमी। ठीक जैसे घर में अधिकतर पति शरीफ होते हैं मगर बाहर निकलते ही शराफत छोड़ बदमाशी करना चाहते हैं। मगर बदमाशी करना सब के बस की बात नहीं होती है इसलिए ज़्यादातर शरीफ चाहकर भी शराफत का लबादा उतार नहीं पाते हैं। अब बात चुनाव की कयामत की। ये अफवाह जाने कब से उड़ चुकी है कि अख़बार टीवी चैनल और सोशल मीडिया पर ज्ञान बघारने वाले बेकार लोग और कुछ राजनीतिक दलों के भाड़े पर लगाए लोग जिसे चाहे चुनाव जितवा सकते हैं। हर दल की नज़र इसी पर है इनको खुश करने से जीत हासिल हो जाएगी मानते हैं। कहने को सभी कहते हैं देश की जनता समझदार है मगर समझते हैं जनता नासमझ बच्चा है जो उनकी समझाई किताब पढ़कर उस पर अमल करेगा। वास्तविकता सब जानते हैं कि हमेशा देश की जनता ने समझदारी का परिचय दिया है। इनको लगता है जो हम लिखेंगे जो भी हम दिखाएंगे लोग उसी को सच मानेंगे। लोग यही मानेंगे कि देश की वास्तविक समस्याएं वो हैं जो मीडिया बताता है और जो खुद जनता की समस्याएं हैं वो कोई समस्या हैं ही नहीं। और लोग अन्याय अत्याचार भेदभाव  शिक्षा रोज़गार स्वास्थ्य की चिंता छोड़ धर्म और मूर्तियों तथा राजनीतिक दलों की सत्ता की चाहत को साम दाम दंड भेद भाव की अनीति को उचित समझ अपना मत देंगे। सभी दल सब नेता टीवी चैनल अख़बार चुनाव को ऐसे देख रहे हैं जैसे कोई कयामत आने वाली है। इन को और कोई चिंता ही नहीं है , कुवें के मेंढक को लगता है उसका समंदर विशाल है। जो लोग आज़ादी चाहिए रौशनी चाहिए का शोर मचाते हैं कैफ़ी आज़मी की कविता की तरह उनको केवल सत्ता की चाहत है और चुनाव संपन्न होते ही वापस अंधे कुंवे में कूद जाते हैं फिर से नारे लगाने को।
 
                  इस देश की जनता की आदत आज भी सदियों पुरानी हैं चुप रहती है सब समझती है मगर बोलती नहीं है मगर सही समय पर अच्छे अच्छों को असली औकात दिखला देती है। किताबी ज्ञान वालों को ये समझना आसान नहीं है कि बड़े बूढ़े और तजुर्बे से बहुत सबक लोग सीखते हैं और जीवन के अनुभव से बढ़कर कोई स्कूल कोई कॉलेज कोई विश्वविद्यालय ज्ञान नहीं दे सकता है। बंद कमरों में बैठ कर देश को समझना संभव नहीं है। शायद कोई ये विचार नहीं करता है कि ये कितनी बड़ी मूर्खता है कि पहले इसकी चर्चा करना कि कौन किसे वोट देगा कौन जीतेगा कौन हारेगा और उसके बाद क्यों कोई जीता कोई हारा की बात की चर्चा करना। कभी पढ़ना यही काम सब से अधिक मूर्खता वाला बताया गया है तमाम महान ऐसे लोगों द्वारा जिन्होंने इसकी चिंता नहीं की और वास्तविक कार्य किया। गांधी भगत सिंह सुभाष जैसे लोग अगर इन बातों की चर्चा में उलझे रहते या नानक बुद्ध केवल यही करते अथवा अब्दुल कलाम ऐसी बहस में लगे रहते तो कुछ भी हुआ नहीं होता। विडंबना की बात है गीता की बात करने वाले कभी समझ नहीं पाए कि जंग लड़ क्यों रहे हैं और जीत हार से अधिक महत्व किस बात का है। समझदार लोग खामोश रहते हैं और दो कौड़ी के लोग शोर मचाकर अपनी बोली लगवा रहे होते हैं। देश की अधिकांश जनता खामोश रहती है और आज भी चुप है समय पर निर्णय देने को मगर ये राजनेता और मीडिया वाले कुछ तथाकथित जानकर विशेषज्ञ कहलाने वाले लोगों के साथ शोर मचाए हुए हैं कि कयामत आने वाली है। हम शरीफ लोगों की शराफत को कमज़ोरी या नासमझी नहीं समझो जिस दिन ये दबे कुचले लोग बोलने लगे आप सभी खुद को सब जानने वाले समझने वाले दंग रह जाओगे मगर घबराना नहीं कोई आफत कोई कयामत नहीं आएगी।

               शायद आज भी बहुत लोगों को याद होगा कि देश में चुनाव कभी नफरत और बदले की भावना से नहीं विचारों की विभिन्नता को लेकर लड़े जाते थे और जनता को इक पर्व की तरह उत्साह होता था। राजनीतिक दलों की सत्ता की भूख के कारण अपराधी और धनवान और सरकार का दुरूपयोग करने वाले लोग देश को बर्बाद करने में सफल होते होते सरकार पर वर्चस्व स्थपित कर सके हैं। आज कोई भी दल देश और समाज की भलाई नहीं चाहता ये सब उस गंदे पानी के तालाब की तरह हैं जिस में जितना साफ पानी बाहर से मिलाओ उस को भी गंदा कर देते हैं। सवाल इस गंदी राजनीति के पूरे पानी को बदलने का है। शायद कुछ कमी है जो हम किसी न किसी को मसीहा समझ उसकी बंदगी करने लगते हैं जो वास्तव में गुलामी की निशानी है। भारत हो या कोई भी देश कोई भी राजनेता देवता नहीं होता है और जनता जो उनको चुनती है उसे सर झुकाने की आदत छोड़ अपने अधिकार मांगने  और उनको कर्तव्य निभाने की बात करनी होगी। जो भी नेता कहता हो उसने आपको कुछ भी दिया है उसको कहना होगा कि आपने दिया नहीं है हमारा है हमें मिलना चाहिए था। किसी भी अधिकारी से बात करते हुए सर जी कहना इस देश के पत्रकार और बुद्धीजीवी ही किया करते है अन्य किसी देश में नहीं होता है ऐसा। वास्तविक मालिक देश की जनता है और शासन करने वालों की अकर्मण्यता का सबूत है कि खुद सुख सुविधा से रहते हैं मगर जनता को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं करवा सके आज तक। दो शेर आखिर में अपनी ग़ज़ल के अलग अलग। 

बोलने जब लगे पामाल लोग , 

कुछ नहीं कर सके वाचाल लोग। 

अनमोल रख कर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में ,

देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई।


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